कविता : मस्त मगन

कविता : मस्त मगन, मस्त मगन मैं रहना चाहूँ, खुद में झर -झर बहना चाहूँ, किसी के समक्ष अवरुद्ध न होऊं, और किसी पर क्रुद्ध न होऊं, खुद से खुद को समझना चाहूँ, मस्त मगन मैं रहना चाहूँ, खुद में झर -झर बहना चाहूँ #सिद्धार्थ गोरखपुरी
मस्त मगन मैं रहना चाहूँ
खुद में झर -झर बहना चाहूँ
खुद से खुद का हाल बताऊँ
गलत -सही का फरक बताऊँ
झिझक से कोसों दूर रहूँ
कह लूँ, जो कुछ कहना चाहूँ
मस्त मगन मैं रहना चाहूँ
खुद में झर -झर बहना चाहूँ
यात्रा वृत्तांत : झीलों की नगरी उदयपुर
मौन अधर रख बात करूँ मैं
खुद में सारा जज़्बात भरूं मैं
दूजे से कोई बात न बिगड़े
बस खुद से ही उलझना चाहूँ
मस्त मगन मैं रहना चाहूँ
खुद में झर -झर बहना चाहूँ
किसी के समक्ष अवरुद्ध न होऊं
और किसी पर क्रुद्ध न होऊं
खुद से खुद को समझना चाहूँ
मस्त मगन मैं रहना चाहूँ
खुद में झर -झर बहना चाहूँ
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