कविता : जादू की छड़ी

राजीव कुमार झा
अरी सुंदरी !
अब मन के
बारे में
मौसम को
कुछ भी नहीं
बताओ!
धूप का गीत
सबको सुनाओ!
बहकी हवा को
पास बुलाओ !
यह सच्चे प्रेम का
मौसम है
धरती अब खूब
हर तरफ
चौकस है !
महुए का पेड़
खेत में अकेला
क्यों चुप है –
हवा सुबह में
खूब महकती
दुपहरी में
यहां से
काफी दूर जाकर
वह चुप बैठी!
खलिहान में
शाम हो गयी
हवा रास्ते में
कहां सो गयी!
सुबह सवेरे
गलियों में जगकर
घर से निकल पड़ी!
धूप में लेकर
जादू की छड़ी!
हरी घास
जो कुहासे के
बाद
फिर उगी!
इस तेज धूप में
वह खेत खलिहान
बाग बगीचों में
विचरती
सबसे डरी !
अरी हवा !
फागुन की हवा
रस से भरी !
नदी के किनारे
धोबीघाट पर
सूखती ,
ओस से भीगी
जाड़े की दरी!
माथे पर छलकता
पसीना
रिमझिम बूंदों की
गालों पर बहती
आकाश से झड़ी
सावन में कितनी
सुंदर लगती
आकाश में
चमकती बिखरती
बिजलियों की लड़ी!
बिजली कौंधती
अंधेरी रात में
हवा टूटती-
कभी गोली की
तरह
वह छूटती
पेड़ की डाल पर
गिरकर
सबसे पूछती-
इस झंझावात में
नदी के किनारे
वह अकेली
अरी सुंदरी !
रात इसी तरह
अब बीत जाएगी
नींद आएगी
हवा दरवाजे पर
आकर
बाहर बुलाएगी
पीपल के पेड़ के
नीचे –
सुबह मुस्कुरागी
होली की याद
आएगी
यह चैत
गीत गाने का
मौसम
जंगल की राहें
दुपहरी में
अब खूब
पकी फसलों से
सितारों से भरी
आकाश की बांहें
रात में नदी का
किनारा
कलकल बहती
धारा
चांदनी का फैला
उजाला
सुबह
हरसिंगार की
माला
अरी सुंदरी !
चैत का मेला
कोई शहर से
चैत का मेला
घूमने आया !
¤ प्रकाशन परिचय ¤
![]() |
From »राजीव कुमार झाकवि एवं लेखकAddress »इंदुपुर, पोस्ट बड़हिया, जिला लखीसराय (बिहार) | Mob : 6206756085Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
---|