कविता : लगता है
सिद्धार्थ गोरखपुरी
एक चेहरा अब तेरे जैसा लगता है
सीरत से तो मेरे जैसा लगता है
इश्क करूँ? लेकिन कंगाल भी हूँ!
दिल ने कहा मोहब्बत में पैसा लगता है
डूब जाने को वैसे तो समंदर है
आँखों में कैसे सब डूबा करते हैं
जो दिल के कर देगी टुकड़े – टुकड़े
फिर भी अब उसको महबूबा कहते हैं
जिनके दिल टूटे हैं उनसे पूछो जरा
के दिल टूट जाने पर कैसा लगता है
इश्क करूँ? लेकिन कंगाल भी हूँ!
दिल ने कहा मोहब्बत में पैसा लगता है
भूल जाने में वैसे तो तुम माहिर हो
दिल में मेरे क्या है ये भी जाहिर हो
तुमसे अब भी मोहब्बत है मुझको
तुमको ही बस ऐसा लगता है
इश्क करूँ? लेकिन कंगाल भी हूँ!
दिल ने कहा मोहब्बत में पैसा लगता है
हवाएं ढूढ़ कर यादों को तेरी
ला रही है
आहिस्ता – आहिस्ता मुझे ये
सता रही है
जवाब माकूल तो होगा नहीं तेरे पास
फिर भी बता दे के क्या मेरी
खता रही है
तूँ भरपूर पछता रहा है लम्हा -लम्हा
मुझको तो हरदम ऐसा लगता है
इश्क करूँ? लेकिन कंगाल भी हूँ!
दिल ने कहा मोहब्बत में पैसा लगता है
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