कविता : आलसी इंसान
सुनील कुमार माथुर
जीवन में जैसे जैसे सुख सुविधाएं बढी
वैसे वैसे इंसान हुआ आलसी
दो वक्त की रोटी भी अब वह
बाजार से मंगाकर खाने लगा हैं
घर की रोटी को छोड कर वह
होटल वालों से घर जैसा खाना मांग रहा हैं
जीवन में सुख सुविधाएं क्या बढी
इंसान आलसी हो गया है
दो वक्त की रोटी भी बाजार से मंगाने लगा है
अरे हे इंसान ! यह मत भूल
बाजार की रोटी में घर जैसा
प्यार – दुलार और ममता कहां फ्री हैं
बाजार के छप्पन भोग में भी रोग मिलते हैं
हे इंसान ! भूल जा बाजार के व्यंजनों को
घर का बना भोजन खाओं
स्वस्थ रहें, मस्त रहें, रोग मुक्त तुम सदा रहों
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¤ प्रकाशन परिचय ¤
From »सुनील कुमार माथुरस्वतंत्र लेखक व पत्रकारAddress »33, वर्धमान नगर, शोभावतो की ढाणी, खेमे का कुआ, पालरोड, जोधपुर (राजस्थान)Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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Nice article
Very nice👏
Nice
Nice
वास्तव में आजकल यही हो रहाहै। हर कोई बस बाज़ार कीही वस्तुएँ मंगा रहा है और रुचि से सेवन कर रहा है
वास्तव में आजकल यही हो रहाहै। हर कोई बस बाज़ार कीही वस्तुएँ मंगा रहा है और रुचि से सेवन कर रहा है
True
Nice
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