कविता : उनकी यादों में
कविता : उनकी यादों में, अपनी आकृति में जंजीरों में जकड़े समय की गाथा सुनाते हमें तोड़ना होगा सुबह में जड़ जमाते चमकते अंधेरे को जिंदगी कितनी यहां अब मुस्कुराती याद आती रात चांदनी में कहां खामोश हो जाती, बिहार से राजीव कुमार झा की कलम से…
समय की आकृति में
इसका साम्यभाव
विडंबनाओं से घिरता
गया
हिमालय पिघलता
बहता
गंगोत्री से दूर
ऊंचे ग्लेशियरों में
जर्जर दिख रहा
यहां अब तूफ़ान आते
सर्दियों में शत्रु
बर्फीली चोटियों पर
उमड़ आते
गोलाबारी के बीच
अपने हताहत
सैनिकों को कंधे
देकर
उन्हें जो लोग घर लाते
उनकी भाव भंगिमा में
चेहरे की आकृति को
बदलते समय के बीच
कब हम पहचान पाते
याद आते
जिंदगी की आकृति को
ढूंढ़ते
यातनाओं से गुजरते
बेघर लोग
उनकी यादों में
सारे किस्से
अपनी आकृति में
जंजीरों में जकड़े
समय की गाथा सुनाते
हमें तोड़ना होगा
सुबह में जड़ जमाते
चमकते अंधेरे को
जिंदगी कितनी
यहां अब मुस्कुराती
याद आती रात
चांदनी में कहां
खामोश हो जाती
रक्तपात के बाद
रुदन
औरतों का विलाप
उजड़ते जंगल में
सुनायी देता
काश ! इनके साथ
यहां कोई आज होता
चैन से हर कोई
यहां धूप में
प्रेम का बीज बोता
सागर उछाले भरता
दूर से फिर तट की ओर
बढ़ते
शत्रुओं के युद्ध बेड़ों को
देखकर
फुंफकार उठता
उसी धरती पर
यहां सूरज उगा
प्रेम भाव में पगा
यहां हर घर का आंगन
सुख चैन से रोशन
हुआ
अपने बारे में इसने
कभी किसी को
कुछ भी नहीं कहा
सैकड़ों सालों से
यहां हर आदमी
दुख दर्द सिर्फ सहता रहा
अपना गम खुद को
बताता
जिंदगी से फिरता गया
समय और समाज की
इस आकृति में
यहां किसका चेहरा
समाया
दुपहरी में सूरज
दरवाजे पर तमतमाया
चला आया
शाम की नाव में
क्षितिज के पार जाता
कोई उदास बैठा
अकेला
नदी की बहती हुई
धारा
अकेली रातभर
यहां डूबता स्वर
रोज देता सुनाई
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