कविता : महाकुंभ में गोता

गणपत लाल उदय, अजमेर राजस्थान
चलों आज हम लगा आएंं इस महाकुंभ में गोता,
गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम जहां पर होता।
भीड़ लगी है साधु सन्तों की जहां है बड़ी महत्ता,
हवनकुंड की शुद्ध हवा का है सभी को न्यौता।।
दूर-दूर से आ रहें है यहां बनाकर टोलियां जत्था,
कुंभ नहाकर पुण्य कमा रहें सब टेक रहें मत्था।
संत संन्यासी नागा साधुओं का दर्शन यहां होता,
पावन उत्सव मना रहें आज शासन और सत्ता।।
प्रथम स्नान पौष पूर्णिमा द्वितीय मकर सन्क्रान्त,
तृतीय मौनी-अमावस चतुर्थ वसंत पंचमी स्नान।
पंचम माघ पूर्णिमा है छः महा-शिवरात्रि की रात,
अखंड-अखाड़ा तपस्वियों का माना है विज्ञान।।
हाथों में कमण्डल, चिमटा-डमरू इनके है रहता,
आध्यात्मिक शुद्धि के लिए श्रृॅंगार ये भी करता।
भस्म रमाएं पूरे शरीर में ललाट चंदन लेप रहता,
ऑंखो में सुरमा, गलें में रूद्राक्ष पहने ये रहता।।
सारा श्रृंगार होता है यह शिव शंकर को समर्पित,
१४४ वर्षों से आएं महाकुंभ सब गाते है ये गीत।
भास्कर और चंद्रमा से मिलती ऊर्जा मानव हित,
सूरज की प्रथम किरण से पहले नहाते है नित।।