
सत्येन्द्र कुमार पाठक
नवरात्रि के नौ पावन दिनों में, दूसरा दिन माता ब्रह्मचारिणी को समर्पित है, जो तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की साक्षात प्रतीक हैं। उनका नाम ही उनके स्वरूप को परिभाषित करता है: ‘ब्रह्म’ का अर्थ है तपस्या और ‘चारिणी’ का अर्थ है आचरण करने वाली, यानी वह देवी जो तपस्या का आचरण करती हैं। देवी ब्रह्मचारिणी की कथा, उनके स्वरूप और उनके महत्व को समझना हमें जीवन में सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
सनातन धर्म के शाक्त पंथ के देवीभागवत एवं स्मृति ग्रंथों के अनुसार, देवी ब्रह्मचारिणी पूर्व जन्म में हिमालय के राजा हिमवंत और उनकी पत्नी मैना की पुत्री थीं। उनका जन्म उत्तराखंड के चमोली जिले में, कर्णप्रयाग के पास नंद पर्वत की श्रृंखला पर हुआ था। जब वे छोटी थीं, तब देवर्षि नारद के उपदेशों से प्रेरित होकर उन्होंने भगवान शिव को अपने पति के रूप में पाने का संकल्प लिया। भगवान शिव को पाने के लिए उन्होंने घोर तपस्या की। उनकी तपस्या इतनी कठोर थी कि उन्हें तपश्चरिणी नाम से भी जाना जाने लगा। उन्होंने हजारों वर्षों तक केवल फल और फूल खाकर तप किया। इसके बाद उन्होंने पत्तों का भी त्याग कर दिया, जिसके कारण उन्हें अपर्णा (बिना पत्तों वाली) भी कहा गया।
उनकी कठोर तपस्या से तीनों लोक कांप उठे और देवगण भी उनकी लगन से चकित थे। अंततः, भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्हें वरदान दिया कि वे ही उनके पति होंगे। इस प्रकार, माता ब्रह्मचारिणी की कथा हमें यह सिखाती है कि सच्ची लगन और कठोर परिश्रम से कोई भी लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। माता ब्रह्मचारिणी का स्वरूप अत्यंत सरल, शांत और सौम्य है। वह सफेद वस्त्र धारण करती हैं, जो शुद्धता और सादगी का प्रतीक है। उनके दाहिने हाथ में जप की रुद्राक्ष माला है, जो तप और एकाग्रता का प्रतीक है, और बाएं हाथ में कमंडल है, जो त्याग और वैराग्य का प्रतीक है। उनकी सवारी उनके अपने चरण हैं, जो यह दर्शाते हैं कि वह अपनी शक्ति और तपस्या से स्वयं ही आगे बढ़ती हैं।
माता ब्रह्मचारिणी का प्रिय रंग पीला, सफेद और हरा है, और उन्हें मिश्री व हविष्य का भोग प्रिय है। उनका ध्यान हमें मन को शांत करने, बाहरी भौतिक सुखों का त्याग करने और आंतरिक शांति की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। सत्य सनातन धर्म में माता ब्रह्मचारिणी की उपासना का विशेष महत्व है। ऋग्वेद, देवीभागवत, मार्कण्डेय पुराण और भविष्य पुराण जैसे प्रमुख ग्रंथों में उनकी महिमा का उल्लेख मिलता है। नवरात्रि के दूसरे दिन साधक और भक्त अपने मन को स्वाधिष्ठान चक्र पर केंद्रित करते हैं, जो माता ब्रह्मचारिणी का प्रतीक है। यह चक्र जीवन शक्ति, सृजनात्मकता और भावनात्मक संतुलन से जुड़ा है। इस दिन की उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य और संयम जैसे गुणों की वृद्धि होती है। माता ब्रह्मचारिणी के कई प्रमुख मंदिर और स्थल हैं, जो भक्तों के लिए आस्था के केंद्र हैं:
- कर्णप्रयाग, उत्तराखंड: चमोली जिले में स्थित नंद पर्वत पर उनका मूल ब्रह्मचारिणी मंदिर।
- वाराणसी, उत्तर प्रदेश: सप्तसागर क्षेत्र में, पंचगंगा घाट और दुर्गाघाट के पास उनके मंदिर।
- पुष्कर, राजस्थान: ब्रह्म सरोवर के पास ब्रह्मघाट क्षेत्र में उनका मंदिर।
- उमानंद मंदिर, असम: गुवाहाटी के पास ब्रह्मपुत्र नदी के बीच स्थित नीलांचल पर्वत पर।
इसके अलावा, सूरत, बरेली, अल्मोड़ा, टिहरी, और चंपावत जैसे कई स्थानों पर भी उनके मंदिर स्थित हैं, जो उनकी व्यापक लोकप्रियता को दर्शाते हैं। नवरात्रि के दूसरे दिन माता ब्रह्मचारिणी की उपासना के लिए कई मंत्रों और श्लोकों का जाप किया जाता है, जिनमें प्रमुख हैं:
“दधाना कर पद्माभ्यामक्ष माला कमण्डलु | देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ||”
“या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।”
इन श्लोकों के जाप से साधक को न केवल देवी का आशीर्वाद प्राप्त होता है, बल्कि वह अपने जीवन में यश, सिद्धि और विजय भी प्राप्त करता है। आज के भागदौड़ भरे जीवन में माता ब्रह्मचारिणी का महत्व और भी बढ़ जाता है। उनकी कथा हमें बताती है कि जीवन में सफल होने के लिए भौतिकवादी इच्छाओं से परे जाकर एकाग्रता और धैर्य से काम करना जरूरी है। मोबाइल, सोशल मीडिया और अन्य बाहरी distractions से भरे इस युग में उनकी तपस्या हमें मन को शांत करने और अपने लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करने की प्रेरणा देती है।
माता ब्रह्मचारिणी की उपासना हमें यह सीख देती है कि बाहरी सुंदरता या धन से अधिक महत्वपूर्ण आंतरिक शांति, नैतिकता और आत्म-अनुशासन है। इस प्रकार, माता ब्रह्मचारिणी केवल एक देवी नहीं, बल्कि एक मार्गदर्शक शक्ति हैं, जो हमें जीवन के हर मोड़ पर तप, त्याग और संयम की राह पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं।
स्थान: करपी, अरवल, बिहार 804419
संपर्क: 9472987491