
प्रेम, आस्था और समानता के बीच झूलता एक पर्व — जहाँ परंपरा भी है, और बदलाव की दस्तक भी।
करवा चौथ भारतीय संस्कृति का एक लोकप्रिय पर्व है, जिसमें विवाहित महिलाएँ अपने पति की दीर्घायु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। इसकी परंपरा प्रेम और समर्पण से जुड़ी है, लेकिन आधुनिक समाज में यह त्यौहार समानता और साझेदारी के भाव से मनाया जाने लगा है। अब कई पुरुष भी व्रत रखते हैं। यह बदलाव बताता है कि करवा चौथ केवल पति की लंबी उम्र का प्रतीक नहीं, बल्कि रिश्तों में आपसी सम्मान, प्रेम और विश्वास का उत्सव भी है। परंपरा तभी सार्थक है, जब उसमें समय की समझ और आत्मा दोनों मौजूद हों।
– डॉ. प्रियंका सौरभ
हर साल कार्तिक मास की चतुर्थी को, जब शाम का सूरज डूबता है, भारत के कोने-कोने में सजी-संवरी महिलाएँ थाली में दीप, छलनी और करवा सजाकर चाँद के दर्शन करती हैं। उनके माथे पर लाल बिंदी, हाथों में मेंहदी, आँखों में इंतज़ार और होठों पर एक ही सवाल—“चाँद निकला क्या?” यह दृश्य भारतीय संस्कृति की सुंदरता का प्रतीक है और उसकी गहराई में छिपे सामाजिक अर्थों का आईना भी। करवा चौथ का व्रत उत्तर भारत में विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। विवाहित महिलाएँ सूर्योदय से चंद्रोदय तक निर्जला व्रत रखती हैं। परंपरा के अनुसार यह व्रत सुहाग की स्थिरता और पति की लंबी उम्र के लिए रखा जाता है। दिनभर की तपस्या के बाद, जब चाँद निकलता है, पत्नी छलनी से पति का चेहरा देख कर व्रत तोड़ती है।
लेकिन सवाल उठता है—क्या यह व्रत केवल प्रेम और आस्था की अभिव्यक्ति है, या समाज की पितृसत्तात्मक जड़ों का प्रतीक भी? भारतीय समाज में स्त्री के जीवन को “सुहाग” से जोड़ा गया है—उसकी खुशी, प्रतिष्ठा और पहचान तक। विवाह के बाद उसका जीवन पति के साथ ही जुड़ा माना गया। ऐसे में करवा चौथ जैसे व्रत स्त्री के समर्पण, त्याग और सहनशीलता का उत्सव बन गए। पर क्या यह सच्चा प्रेम है, या स्त्री के अस्तित्व को पति की उम्र के साथ बाँधने का सांस्कृतिक औचित्य? आज की पढ़ी-लिखी स्त्री करवा चौथ का व्रत प्रेम, सहयोग और रिश्ते में सामंजस्य के प्रतीक के रूप में भी रखती है। वहीं, कई पुरुष भी अब पत्नी के साथ समान भाव से व्रत रखते हैं—यह बदलाव सकारात्मक है। पर व्रत अब “कल्चरल इवेंट” बन चुका है। टीवी धारावाहिक, फिल्में और सोशल मीडिया इसे जितना ग्लैमरस दिखाते हैं, उतना ही मूल अर्थ खोता जा रहा है।
पहले यह व्रत गाँव की औरतों के बीच अपनापन और सहयोग का प्रतीक था। महिलाएँ एक-दूसरे के घर जातीं, मिट्टी के करवे में जल भरतीं, गीत गातीं। अब यह महंगे साज-श्रृंगार और डिजाइनर साड़ियों का प्रदर्शन बन गया है। उपवास के बजाय अब “इंस्टा रील्स” का युग है। फिर भी, परंपराओं को नकारना उचित नहीं। करवा चौथ के पीछे जो भाव है—प्रेम, समर्पण और आस्था—उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पर यह भी जरूरी है कि हम इसे आधुनिक दृष्टि से देखें। आज जब हम समानता, स्वतंत्रता और पारस्परिक सम्मान की बात करते हैं, तो यह व्रत भी एकतरफा नहीं रहना चाहिए। अगर पत्नी पति की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती है, तो पति भी पत्नी की सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य के लिए समान भाव से प्रार्थना करे—यही सच्चा प्रेम और समानता है।
करवा चौथ का धार्मिक या पौराणिक आधार उतना स्पष्ट नहीं जितना इसके लोकप्रचलन का प्रभाव। “करवा” यानी मिट्टी का घड़ा, जो जल का प्रतीक था, और “चौथ” यानी चतुर्थी। कुछ विद्वानों के अनुसार यह व्रत सैनिक परिवारों की परंपरा से जुड़ा था—जब पति युद्ध पर जाते थे, तो पत्नी उनकी सुरक्षित वापसी के लिए व्रत रखती थी। वहीं कुछ मान्यताएँ कहती हैं कि यह महिलाओं के बीच सामाजिक एकता बढ़ाने का माध्यम था। आधुनिक समाज में करवा चौथ के अर्थ कई हैं। एक ओर यह प्रेम का उत्सव है, तो दूसरी ओर यह स्त्री पर “आदर्श पत्नी” बनने का सामाजिक दबाव भी। यह द्वंद्व हमें सोचने पर मजबूर करता है—क्या प्रेम का प्रमाण त्याग से ही मापा जाएगा? क्या भूखे रहकर ही निष्ठा सिद्ध होती है?
फिर भी, समय के साथ इसका स्वरूप बदल रहा है। अब कई जगह पति भी व्रत रखते हैं, कई जोड़े इसे “रिलेशनशिप रिचुअल” की तरह मनाते हैं। यह बदलाव बताता है कि समाज धीरे-धीरे समानता की ओर बढ़ रहा है। पहले यह स्त्री के कर्तव्य का प्रतीक था, अब यह रिश्तों की साझेदारी का रूप ले रहा है। आज जरूरत है कि हम परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाएं। करवा चौथ को न केवल रूढ़िवादिता समझें, न ही दिखावे का त्यौहार बनाएं। इसके भीतर के प्रेम, भाव और समर्पण को सच्चे अर्थों में आत्मसात करें—बिना किसी सामाजिक दबाव के। हर स्त्री को यह अधिकार होना चाहिए कि वह चाहे तो व्रत रखे या न रखे; क्योंकि प्रेम की परिभाषा उपवास से नहीं, आपसी समझ और सम्मान से तय होती है।
यदि इस व्रत के बहाने पति-पत्नी एक-दूसरे को समझें, त्याग की कद्र करें और रिश्ते में नयापन लाएँ—तो यह त्यौहार अपने असली अर्थ में सफल होगा। क्योंकि आखिरकार, करवा चौथ सिर्फ “पति की लंबी उम्र” का पर्व नहीं, बल्कि उस रिश्ते की स्थिरता और संवेदनशीलता का प्रतीक है, जो दो आत्माओं को जोड़ता है।
– प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)