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साहित्य लहर

बस इतनी सी इल्तज़ा

प्रेम बजाज

नहीं चाह कि पूजी जाएं मैं देवी बना कर, नहीं चाह कि महलोंकी बन रानी संभालूं कोई राज-काज मैं, नहीं मांगा कभी अंबार धन-दौलत का, नहीं हीरे-मैती की की ख्वाहिश मैंने, ना ही चांद – तारों की कभी कोई मांग की मैंने।

मगर ये भी मेरा नसीब नहीं कि पैरो तले रौंदी जाऊं, या बनाकर के बांदी घर में रखी जाऊं, ना ही ऐसे कर्म खोटे मेरे कि बेची जाऊं किसी वस्तु के जैसे, क्या करूंगी मैं धन-दौलत और हीरे- जवाहारात, जब बदन सजा है मार के निशानों से, चांद- सितारों से क्या मांगू सजाओगे तुम, चुटकी भर सिंदूर मांग का ही तुम्हारा महंगा पड़ रहा है।

मत दो मुझे कुछ भी तुम बस थोड़ी सी इज्ज़त और चाहत दे दो, बस थोड़ा सा प्यार था मान दे दो, दे दो दिल में जगह थोड़ी सी, थोड़ा सा घर-परिवार पर हक दे दो, ना करना कभी बेआबरू चौराहे पर, हर मजलूम के सर पर चुनर दे दो, बहू-बेटी का सम्मान करो, बस इतनी सी इल्तज़ा तुम मान लो।

Devbhoomi Samachar

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