भक्ति का आनन्द
भक्ति का आनन्द, जीवन में सबका अपना-अपना वजूद है। सूर्य के सामने भले ही दीपक का कोई वजूद नहीं हो लेकिन अंधेरे के आगे बहुत कुछ है। इसलिए कभी भी किसी को छोटा न समझे। सभी का समाज में अपना अपना गौरवमय स्थान है। #सुनील कुमार माथुर, जोधपुर, राजस्थान
कहते है कि जहां कंकर है, वही शंकर हैं और जहां शंकर हैं वहीं कंकर हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान को पाने के लिए किसी डिग्री, रंग रूप, अमीर – गरीब, छोटा बडा होना आवश्यक नहीं है। अपितु प्रभु के प्रति प्रेम होना चाहिए चूंकि वे तो भक्तों के भाव के भूखे हैं इसलिए वे अपने भक्तों के भाव को देखते हैं। उन्हें पाने के लिए निस्वार्थ भाव से की गई सेवा होनी चाहिए। अगर प्रभु की भक्ति करते समय आपके विचारों में परिवर्तन आये और सारे दुर्गुण एक एक करके समाप्त होने लगे तभी भक्ति का आनंद हैं।
अगर हमारे स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आये तो फिर समझे कि मेरी भक्ति में अभी कमी है वह कमजोर है। कहते हैं कि जन्म से रिश्ते प्रकृति की देन है लेकिन खुद के बनाए हुए रिश्ते आपकी पूंजी है इसलिए इन्हें सहेज कर रखिए। रिश्ते बनाने में वर्षो लग जाते है लेकिन टूटते देर नहीं लगती। इसलिए जब भी बोले तब नाप तौल कर बोले। आपकी मधुर वाणी से सामने वाले व सुनने वालों को आनंद आ जाये। वही दूसरी ओर आपकी कटु वाणी से सामने वाले का दिल टूट जाये। शरीर पर लगी चोट दवाओं से ठीक हो सकती है।
मगर आपके कटु वचनों से दिल में लगी चोट कभी ठीक नहीं हो सकती। इसलिए जब भी किसी से बातचीत करे तब सोच समझ कर ही बोले ताकि रिश्ते बने रहे। आपके कार्यो की कोई सराहना करे या निंदा। दोनों अच्छे ही हैं। क्योंकि प्रशंसा प्रेरणा देती है और निंदा सावधान होने का अवसर देती हैं। लेकिन आज का इंसान अपनी निंदा सुनने को तैयार नहीं है। वह हर वक्त चापलुसों से घिरा रहता है और उनके मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर फूला नहीं समाता हैं।
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झूठी प्रशंसा हमारी प्रगति में सदैव बाधक बनती है जबकि निंदा हमें अपने कार्य को सुधारने व पहले से अच्छा व बेहतर कर्म करने को प्रेरित करती है। अतः अपनी निंदा सुनकर किसी से लडाई झगडा नही करना चाहिए। हमारी निंदा हमारे सामने वे लोग ही करते हैं जो हमारे सच्चे शुभचिंतक होते हैं। किसी महापुरुष ने बहुत ही सुन्दर बात कहीं है कि मन ऐसा रखों कि किसी को बुरा न लगे। दिल ऐसा रखों कि किसी को दुःखी न करें।
रिश्ता ऐसा रखों कि उसका अंत न हो। कोई भी व्यक्ति हमारा मित्र या शत्रु बनकर इस संसार में नहीं आता हैं। हमारा व्यवहार व शब्द ही लोगों को मित्र व शत्रु बनाते हैं। खुशी देने वाले भले ही हमेंशा अपने नहीं होते हैं लेकिन दर्द देने वाले हमेंशा अपने ही होते है। इसलिए इस नश्वर संसार में सबको अपने ढंग से रखना पडता है और उनसे वैसा ही व्यवहार करना पडता है। अन्यथा किसके पास इतना समय है कि वह हर रोज हर किसी से किचकिच करता रहें।
जीवन में सबका अपना-अपना वजूद है। सूर्य के सामने भले ही दीपक का कोई वजूद नहीं हो लेकिन अंधेरे के आगे बहुत कुछ है। इसलिए कभी भी किसी को छोटा न समझे। सभी का समाज में अपना अपना गौरवमय स्थान है। इसलिए सभी का मान सम्मान करना चाहिए। किसी को भी छोटा या अपने से कमजोर समझना हमारी अपनी ही मूर्खता है।
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