
✍️ डॉ. सत्यवान सौरभ
हरियाणा में इन दिनों एक डरावना चलन उभर रहा है—हर हफ्ते कहीं न कहीं से यह खबर आती है कि कोई युवा दोस्तों के साथ घूमने गया और अर्थी में लौटा। ये घटनाएं महज़ अखबार की सुर्खियां नहीं, बल्कि सामाजिक ताने-बाने और व्यवस्था की खामियों की भयावह तस्वीर हैं। ‘दोस्ती’ अब ‘दुर्घटना’ का पर्याय बनती जा रही है।
घटनाएं जो झकझोर देती हैं
हाल ही में हरियाणा में कई घटनाएं सामने आईं:
- हिसार: दो युवकों की झील में डूबकर मौत। परिजनों का आरोप—दोस्त वीडियो बनाते रहे, मदद नहीं की।
- सोनीपत: एक युवक की गला दबाकर हत्या, शव नहर में फेंका गया।
- रेवाड़ी: छात्र का शव जंगल में मिला, जो आखिरी बार दोस्तों के साथ देखा गया था।
इनमें एक जैसी बातें सामने आईं:
(1) पीड़ित दोस्ती पर भरोसा कर घर से निकले थे।
(2) परिवार को सही जानकारी नहीं थी।
(3) मौत के बाद दोस्तों की भूमिका संदिग्ध रही।
दोस्ती के पीछे छिपता अपराध
माना जाता है कि दोस्ती खून से भी गाढ़ा रिश्ता है। लेकिन अब इसमें ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, चालबाज़ी और अपराध की प्रवृत्तियाँ छिपी मिल रही हैं। कई बार यही दोस्त नशा, जुए, बाइक रेसिंग जैसे खतरनाक कामों में फंसा देते हैं।
परिवारों की असहायता
सबसे अधिक पीड़ित वे माता-पिता हैं जिन्होंने अपने बच्चों को हँसते हुए विदा किया और फिर शव के रूप में देखा। वे न समझ पा रहे हैं कि गलती उनकी थी, सिस्टम की, या उस ‘दोस्ती’ की जिस पर भरोसा किया। सोशल मीडिया और मोबाइल की दुनिया ने पारदर्शिता का भ्रम पैदा कर दिया है—हर चीज़ दिखती है, लेकिन सच्चाई कहीं छिप जाती है।
सिस्टम की नाकामी
प्रशासन और पुलिस अक्सर तब हरकत में आती है जब मीडिया या परिजन दबाव डालते हैं। शुरू में अधिकतर मामलों को ‘दुर्घटना’ कहकर रफा-दफा कर दिया जाता है। घूमने वाले युवाओं की ट्रैकिंग, पर्यटन स्थलों पर सुरक्षा व्यवस्था—इन सब में भारी कमी है।
संवादहीनता का संकट
परिवार और समाज युवाओं से जीवन, दोस्ती या मानसिक दबाव पर संवाद नहीं करते। उन्हें केवल ‘कैरियर’ और ‘शादी’ के लेंस से देखा जाता है। संवाद के अभाव में दोस्त ही उनका सब कुछ बन जाते हैं—फिर चाहे वह दोस्ती उन्हें गुमराह करे या मार डाले।
क्या हर सैर मौत की मंज़िल बनेगी?
अब क्या हर माता-पिता डरें जब बच्चा कहे, “दोस्तों के साथ जा रहा हूँ”? क्या युवाओं को बाहर जाने के लिए पुलिस वेरिफिकेशन कराना पड़ेगा? जो बातें कभी मजाक लगती थीं, आज सच्चाई बनती जा रही हैं।
समाधान की राह
महज़ शोक और गुस्से से बात नहीं बनेगी। ठोस कदम जरूरी हैं:
- युवा सुरक्षा नीति – सरकार को युवा समूहों की ट्रैकिंग, पर्यटन स्थलों की सुरक्षा, और इमरजेंसी हेल्पलाइन जैसी व्यवस्थाएं बनानी चाहिए।
- माता-पिता से संवाद – स्कूलों और कॉलेजों में अभिभावक-बच्चों के संवाद को लेकर कार्यक्रम हों।
- मनोवैज्ञानिक परामर्श – युवाओं को सही और गलत दोस्ती में फर्क करने में मदद देने वाली काउंसलिंग आवश्यक है।
- डिजिटल निगरानी – अभिभावकों को सोशल मीडिया व्यवहार पर सतर्क रहना होगा क्योंकि कई झगड़े वहीं से जन्म लेते हैं।
- सख्त कार्रवाई – जिन मामलों में दोस्त ही अपराधी हों, वहां त्वरित और कड़ी सज़ा ज़रूरी है।
- जीवन मूल्य आधारित शिक्षा – शिक्षा व्यवस्था में ऐसे संवाद और पाठ हों जो युवाओं को संबंधों की गहराई और संवेदनशीलता सिखा सकें।
दोस्ती के मायने फिर से गढ़ने होंगे
हरियाणा के युवाओं को ऐसी दोस्ती चाहिए जो भरोसे का पर्याय बने, भय का नहीं। और माता-पिता को ऐसा समाज चाहिए जहां वे अपने बच्चों को मुस्कुराकर विदा कर सकें—बिना यह सोचे कि वे लौटेंगे भी या नहीं। हमें मिलकर यह तय करना होगा कि दोस्ती की राह मौत की मंज़िल न बने।