साहित्य लहर
चुनावी चकल्लस
मो. मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
ज़र्रा ज़र्रा आफताब हो जाते हैं
चुनाव जब पास होते हैं
दलितों पिछड़ों की हो जाती है चिंता
पार्टियां करने लगतीं हैं समीक्षा
विकास की बनने लगती है रणनीति
घर पहुंचने लगते हैं विभूति
दावतें होती है आम
ऊंचे ओहदे वाले होते हैं मेहमान
छक कर खाते हैं
बड़े बड़े वादे कर जाते हैं
जीतने के बाद नहीं फिर आते हैं
घड़ी घड़ी उन्हीं को सताते हैं
बेचारे फिर वहीं के वहीं रह जाते हैं
फिर अगले चुनाव तक-
बाट विकास की जोहते रह जाते हैं।
¤ प्रकाशन परिचय ¤
From »मो. मंजूर आलम ‘नवाब मंजूरलेखक एवं कविAddress »सलेमपुर, छपरा (बिहार)Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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