
- राष्ट्रीय हितों व डिजिटल संप्रभुता की दीर्घकालिक रक्षा का विश्लेषण
डॉ. सत्यवान सौरभ
डिजिटल युग में वैश्विक शक्ति-संतुलन तेल से डेटा की ओर, भू-राजनीति से तकनीक-राजनीति की ओर और पारंपरिक व्यापार से डिजिटल व्यापार की ओर निर्णायक रूप से स्थानांतरित हो चुका है। ऐसे समय में भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ उसे दो समानांतर दबावों और अवसरों का सामना करना पड़ रहा है—एक ओर डिजिटल व्यापार समझौतों में सम्मिलित होकर तीव्र होती वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्वयं को एक विश्वसनीय तकनीकी साझेदार के रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता, और दूसरी ओर स्वदेशी डिजिटल क्षमताओं, डेटा-संपदा, तकनीकी नीति-निर्माण तथा डिजिटल संप्रभुता की रक्षा करने की अनिवार्यता।
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मुख्य समस्या यह है कि कई वैश्विक डिजिटल व्यापार समझौते सतही तौर पर मुक्त और त्वरित डिजिटल प्रवाह की वकालत करते हैं, किंतु वास्तविकता यह है कि इनकी कई धाराएँ विकासशील देशों की नीति-स्वायत्तता, घरेलू तकनीकी उद्योग, डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना और दीर्घकालिक रणनीतिक क्षमताओं को कमजोर करती हैं। भारत की स्थिति इसलिए भी अधिक संवेदनशील है क्योंकि भारत एक विशाल डिजिटल बाजार, डेटा उपभोग के आधार पर दुनिया की सबसे बड़ी डेटा-संपदाओं में से एक, और उभरती वैश्विक मूल्य-श्रृंखला का महत्वपूर्ण तकनीकी केंद्र है।
नियामक स्वायत्तता पर प्रभाव
डिजिटल व्यापार समझौतों का सबसे बड़ा प्रभाव भारत की नियामक क्षमता पर पड़ता है। इनमें प्रायः डेटा के मुक्त प्रवाह, डेटा स्थानीयकरण पर प्रतिबंध, डिजिटल सेवाओं पर गैर-भेदभाव, तथा सोर्स कोड या एल्गोरिद्म के खुलासे पर रोक जैसे प्रावधान शामिल होते हैं। भारत अभी अपने डेटा शासन मॉडल, साइबर सुरक्षा ढाँचे तथा एआई नीति को विकसित कर रहा है। ऐसे में यदि भारत डेटा के भंडारण, उपयोग और नियंत्रण पर अपनी नीतिगत स्वतंत्रता खो देता है, तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा और तकनीकी आत्मनिर्भरता के लिए गंभीर खतरा बन सकता है।
डेटा स्थानीयकरण—राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न
भारत के लिए डेटा स्थानीयकरण केवल तकनीकी प्रश्न नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, डिजिटल न्याय और आर्थिक अवसरों का मामला है। यदि समझौते भारत को डेटा स्थानीयकरण लागू करने से रोकते हैं, तो भारत विदेशी कंपनियों और विदेशी सर्वरों पर निर्भर हो जाता है। इससे एआई मॉडल, नागरिक डिजिटल सेवाएँ, वित्तीय प्रणालियाँ और बिग डेटा विश्लेषण विदेशी नियंत्रण क्षेत्र में चले जाने का खतरा बढ़ जाता है।
स्वदेशी डिजिटल उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव
डिजिटल व्यापार समझौते अक्सर विदेशी डिजिटल सेवाओं के लिए “नेशनल ट्रीटमेंट” और “नॉन-डिस्क्रिमिनेशन” की मांग करते हैं। इसके चलते भारत घरेलू क्लाउड सेवा प्रदाताओं, स्वदेशी एआई अवसंरचना और स्थानीय डिजिटल उद्योग को बढ़ावा देने वाली नीतियाँ नहीं बना पाता। इससे घरेलू नवाचार क्षमता प्रभावित होती है और भारत तकनीकी उपभोक्ता बनकर रह जाने का खतरा बढ़ता है।
सोर्स कोड और एल्गोरिद्मिक पारदर्शिता का प्रश्न
कई समझौतों में यह शर्त होती है कि कोई देश विदेशी कंपनियों से सोर्स कोड या एल्गोरिद्म की जानकारी नहीं मांग सकता। बौद्धिक संपदा की सुरक्षा के नाम पर यह प्रावधान भारत की नियामक पारदर्शिता, उपभोक्ता सुरक्षा और स्वदेशी तकनीकी क्षमता निर्माण के लिए बाधक सिद्ध होता है।
कराधान अधिकारों का क्षरण
डिजिटल व्यापार समझौते डिजिटल सेवा कर या समानता कर (Equalisation Levy) जैसे कराधान तंत्रों को सीमित कर देते हैं। इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारत से अरबों रुपये कमाती हैं लेकिन भारत को अपेक्षित कर राजस्व नहीं दे पातीं। इससे घरेलू कंपनियों को असमान प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है।
भविष्य की तकनीकी नीति पर प्रतिबंध
साइबर सुरक्षा, डीपफेक नियमन, डिजिटल मुद्रा, एआई नैतिकता जैसे क्षेत्रों में भारत को भविष्य में अपने नियमन को बदलने की आवश्यकता पड़ेगी। लेकिन कठोर व्यापार समझौते भारत की नीति-लचकता को खत्म कर सकते हैं।
भारत की दीर्घकालिक रणनीति—क्या किया जाना चाहिए?
1. डिजिटल संप्रभुता को संस्थागत रूप देना : डेटा शासन, साइबर सुरक्षा, एआई नीति और डिजिटल प्लेटफॉर्म विनियमन में घरेलू कानून सर्वोच्च हों। डिजिटल डेटा संरक्षण कानून एक शुरुआत है, पर इसे व्यापक डिजिटल अधिकार ढाँचे में परिवर्तित करना होगा।
2. स्वदेशी डिजिटल अवसंरचना का निर्माण : सेमीकंडक्टर निर्माण, घरेलू क्लाउड, एआई कम्प्यूट, उच्च क्षमता कंप्यूटिंग और डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना को प्राथमिकता दी जाए। आधार, यूपीआई, ओएनडीसी जैसे मॉडल भारत की वैश्विक पहचान बन सकते हैं।
3. व्यापार समझौतों में स्पष्ट “रेड लाइन्स” : डेटा स्थानीयकरण, डिजिटल कराधान, एल्गोरिद्मिक पारदर्शिता और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर भारत को समझौता नहीं करना चाहिए।
4. भारत को उपभोक्ता नहीं, तकनीकी शक्ति बने : भारत की तकनीकी प्रतिभा, स्टार्टअप इकोसिस्टम और डिजिटल कौशल-आधार वार्ताओं में हमारी शक्ति बन सकते हैं।
5. संप्रभु कंप्यूटिंग प्रणाली का निर्माण : सुरक्षित और स्वदेशी क्लाउड, सैन्य-ग्रेड नेटवर्क, एआई कम्प्यूट स्टैक और सेमीकंडक्टर फेब्रिकेशन को प्राथमिकता देना आवश्यक है।
6. डिजिटल कूटनीति का सुदृढ़ीकरण : भारत को वैश्विक डिजिटल मानकों के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए ताकि नियम सिर्फ विकसित देशों के हित में न हों।
डिजिटल व्यापार समझौते भारत के लिए अवसर भी हैं और जोखिम भी। यदि भारत अपनी शर्तों पर इनका हिस्सा बनता है, तो वह वैश्विक डिजिटल अर्थव्यवस्था में नेतृत्व कर सकता है। लेकिन यदि समझौते राष्ट्रीय हितों, डिजिटल सुरक्षा और स्वदेशी क्षमताओं को कमजोर करते हैं, तो उनका दीर्घकालिक प्रभाव हानिकारक हो सकता है। डिजिटल युग में संप्रभुता केवल सीमाओं का नहीं, बल्कि डेटा, एआई, कंप्यूटिंग शक्ति और स्वदेशी तकनीक पर नियंत्रण का प्रश्न है। भारत यदि इन क्षमताओं की रक्षा करता है, तो वह भविष्य का निर्माता बनेगा, केवल उपभोक्ता नहीं।
डॉ. सत्यवान सौरभ
कवि, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पैनलिस्ट
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी), भिवानी, हरियाणा





