
✍🏻 डॉ. सत्यवान सौरभ
“लव जिहाद” — एक ऐसा शब्द जो न तो भारतीय क़ानून में परिभाषित है, न संविधान में मान्यता प्राप्त, लेकिन फिर भी राजनीतिक मंचों, टीवी डिबेट्स और सड़कों पर लगातार गूंजता रहा है। अब यह बहस हरियाणा तक भी पहुँच चुकी है — और अदालतों तक भी। हाल ही में हरियाणा के एक चर्चित मामले में अदालत ने स्पष्ट कहा —
“हरियाणा में ‘लव जिहाद’ नामक आंदोलन चल रहा है, जबकि यह शब्द किसी भी वैधानिक दस्तावेज़ में मान्यता प्राप्त नहीं।”
इस टिप्पणी ने हमें एक आईना दिखाया — कि कैसे हम एक ऐसी अवधारणा के पीछे भाग रहे हैं, जिसकी जड़ें सच्चाई में कम और सियासत में कहीं ज़्यादा गहराई से जुड़ी हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि “लव जिहाद” के नाम पर समाज में एक भावनात्मक आंदोलन खड़ा किया जा रहा है, जिसमें तथ्यों और साक्ष्यों को दरकिनार कर सिर्फ आरोपों के आधार पर पूरे समुदायों को संदेह के दायरे में लाया जा रहा है। यह टिप्पणी उस मामले में आई, जिसमें एक नाबालिग युवती ने एक मुस्लिम युवक पर शादी का झांसा देकर यौन संबंध बनाने और धर्म परिवर्तन का दबाव डालने का आरोप लगाया था। लेकिन अदालत ने गवाहियों और तथ्यों का विश्लेषण करने के बाद पाया कि आरोपों और वास्तविकता में भारी अंतर था।
अदालत ने स्पष्ट किया कि किसी संबंध के टूटने या उसमें धोखे को “धार्मिक षड्यंत्र” की संज्ञा देना न केवल न्याय की मूल भावना के खिलाफ है, बल्कि सामाजिक सौहार्द को भी खतरे में डालता है। “लव जिहाद” शब्द मूलतः कुछ दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा प्रचारित किया गया था, जिसमें यह दावा किया गया कि मुस्लिम युवक योजनाबद्ध तरीके से हिन्दू लड़कियों को प्रेमजाल में फँसाकर उनका धर्मांतरण कर रहे हैं। लेकिन अब तक न तो कोई राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) और न ही कोई न्यायालय इस धारणा को वैधानिक रूप से सिद्ध कर पाया है। यह शब्द एक भावनात्मक और सांप्रदायिक भय की उपज है, न कि संवैधानिक सच्चाई।
इसके बावजूद उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों में इस शब्द के आधार पर विवाह के नाम पर धर्मांतरण रोकने के लिए विशेष कानून बनाए गए हैं। लेकिन इन कानूनों की आलोचना यह कहकर की जाती है कि इनका उपयोग अक्सर प्रेम-विवाहों और अंतरधार्मिक संबंधों को बाधित करने के लिए किया गया है। यह समाज की विडंबना है — कि जहाँ एक ओर हम लव मैरिज, सेक्युलरिज़्म और स्वतंत्रता की बातें करते हैं, वहीं जब दो अलग धर्मों के युवक-युवती प्रेम करें, तो उन्हें शक की नज़र से देखा जाता है।
- क्या प्रेम को मज़हब के चश्मे से देखना सही है?
- क्या हर मुस्लिम लड़का जो हिन्दू लड़की से प्रेम करे, वह “जिहाद” कर रहा है?
- क्या हम इतने असहिष्णु हो गए हैं कि प्रेम भी अब जाति, धर्म और पंथ का गुलाम हो गया है?
“लव जिहाद” जैसे शब्द मीडिया के लिए मसाला हैं और राजनेताओं के लिए हथियार। टीवी डिबेट्स में यह मुद्दा गरमाया जाता है, लेकिन कोई यह सवाल नहीं उठाता कि इसका वैधानिक आधार क्या है? राजनीतिक मंचों पर इसे “हिन्दू अस्मिता” का मुद्दा बनाकर भावनाएं भड़काई जाती हैं। जनता को डराया जाता है कि उनकी बहन-बेटियाँ “लक्ष्य” बन चुकी हैं और धर्म संकट में है। जबकि सच यह है कि अधिकांश मामलों में ऐसे संबंध आपसी सहमति पर आधारित होते हैं। और यदि किसी मामले में धोखा होता है, तो उसे व्यक्तिगत अपराध की तरह देखा जाना चाहिए, धार्मिक युद्ध की तरह नहीं। हमें यह समझना होगा कि किसी भी प्रेम या रिश्ते को मज़हबी चश्मे से देखना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि हमारे लोकतंत्र, सहिष्णुता और सामाजिक ताने-बाने के लिए घातक भी।
भारत एक ऐसा देश है जहाँ मीरा ने कृष्ण को प्रेम किया, हीर-रांझा, लैला-मजनूं, सलीम-अनारकली, अमर-अकबर-एंथनी जैसे किरदारों ने धार्मिक सहिष्णुता को जिया।
वहाँ अगर आज के समाज को यह लगे कि दो मज़हबों के लोगों का प्रेम “षड्यंत्र” है, तो यह मानवता का पतन है। हरियाणा की अदालत की यह टिप्पणी सराहनीय है क्योंकि यह भावनाओं पर नहीं, तथ्यों पर आधारित है। जब पूरा समाज प्रचार और पूर्वाग्रहों में डूबा हो, तब न्यायपालिका का विवेकपूर्ण रुख लोकतंत्र की रक्षा करता है।
न्यायमूर्ति का यह कहना —
“सच को तोलना ही होगा, पूर्वाग्रह से नहीं।”
— केवल कानूनी निर्देश नहीं, एक सामाजिक चेतावनी है।
हरियाणा जैसे राज्य, जहाँ पहले से ही जातिवाद, ऑनर किलिंग और महिला असुरक्षा जैसे संकट मौजूद हैं — वहाँ “लव जिहाद” जैसी अवधारणाएं समाज को और अधिक विभाजित करेंगी। हमें तय करना होगा —
क्या हम ऐसा समाज बनाना चाहते हैं जो प्रेम से डरे,
या ऐसा जो प्रेम को समझे और सम्मान दे?क्या हम औरत को अपनी “जातीय संपत्ति” मानकर उसकी स्वतंत्रता छीनना चाहते हैं,
या एक स्वतंत्र नागरिक की तरह उसकी इच्छा का सम्मान करना सीखना चाहते हैं?
“लव जिहाद” एक राजनीतिक शब्दावली है, संवैधानिक यथार्थ नहीं। हरियाणा की अदालत ने इस भ्रम का पर्दाफाश कर हमें चेताया है — कि रिश्तों, प्रेम और विवाह जैसे निजी मामलों को धार्मिक युद्ध का मोर्चा मत बनाइए। अगर किसी रिश्ते में धोखा है, तो उसका समाधान क़ानून में है। लेकिन अगर हर प्रेम पर धर्म का लेबल लगाया जाएगा, तो न समाज में प्रेम बचेगा, न भरोसा — केवल डर, घृणा और असहिष्णुता पनपेगी।
प्रेम में प्रश्न नहीं होते, पूर्वाग्रह नहीं होते, संप्रदाय नहीं होता। वहाँ सिर्फ दो इंसान होते हैं — जो एक-दूसरे को चुनते हैं। उन्हें मज़हब में मत तोलिए, इंसानियत में समझिए।
डॉ. सत्यवान सौरभ
कवि, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट 333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी), भिवानी, हरियाणा