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जब से सोशल मीडिया आया है, साहित्य सृजन के नाम पर कॉपी-पेस्ट का चलन बढ़ गया है और ‘छपास रोग’ से पीड़ित लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। गत दिनों मेरा एक आलेख “लेखनी कहीं थम न जाए” एक व्हाट्सऐप ग्रुप में साझा हुआ।
सुनील कुमार माथुर
सदस्य, अणुव्रत लेखक मंच, स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार, जोधपुर, राजस्थान
हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों के अंतर्गत भाषण, लेखन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है, जो हमें अपने विचारों के आदान-प्रदान में अत्यंत सहायक होती है। इसके बावजूद भी आज लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करने से घबराते हैं। वे भले ही घंटों बेकार की बातों पर अनाप-शनाप बोलकर समय बर्बाद कर दें, लेकिन जहाँ बोलना या लिखना आवश्यक होता है, वहाँ खामोश रहते हैं। साहित्य के क्षेत्र में ऐसा प्रायः देखने को मिलता है। चूंकि लेखक संपादक मंडल से इतने घबराते हैं कि कहीं वे ब्लैकलिस्ट न हो जाएँ। उनका प्रयास रहता है कि हमारा नाम और रचना हर अंक में प्रकाशित होती रहे, ताकि हम वरिष्ठ लेखक या साहित्यकार कहलाएँ। इसी लोभ-लालच ने आज साहित्यकारों के सामने समस्या पैदा कर दी है।
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जब से सोशल मीडिया आया है, साहित्य सृजन के नाम पर कॉपी-पेस्ट का चलन बढ़ गया है और ‘छपास रोग’ से पीड़ित लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। गत दिनों मेरा एक आलेख “लेखनी कहीं थम न जाए” एक व्हाट्सऐप ग्रुप में साझा हुआ। उस पर साहित्यकार आदरणीय नीलम व्यास, प्रकाश तातेड, सपना जैन और पारस चंद ने सटीक टिप्पणी करते हुए इसे—“सही, सार्थक, आज का यथार्थ, बहुत सुंदर विचारणीय लेख, सही आंकलन, सटीक चित्रण, हर साहित्यकार के अंतर्मन की ठेस”—बताया और लेखनी को नमन किया। वहीं कुछ साहित्यकारों ने केवल दिल का चिन्ह बनाकर अपनी भावनाएँ व्यक्त कीं। सभी साहित्यकार सटीक टिप्पणियों के लिए साधुवाद के पात्र हैं।
सवाल यह है कि आखिर कब तक साहित्य सृजन की उपेक्षा होती रहेगी? कब यह ‘छपास रोग’ खत्म होगा? साहित्यकार बुद्धिजीवी वर्ग है और इस विषय पर व्यापक चिंतन-मनन की आवश्यकता है। साहित्यकारों को प्रोत्साहित करने के लिए उनकी लेखनी पर प्रतिक्रिया अवश्य दीजिए। सिर्फ किसी चिन्ह से प्रतिक्रिया मत दीजिए, क्योंकि हम कलम के धनी हैं—हमारे पास शब्दों का भंडार है, फिर कंजूसी क्यों?









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