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यह कविता बीते समय की मानवीय गरिमा, कर्तव्यनिष्ठा और भरोसे की तुलना आज की तेज़, व्यावसायिक और संवेदनहीन व्यवस्था से करती है। डिलीवरी के प्रतीक के माध्यम से यह रचना आदमी, सम्मान और रिश्तों के धीरे-धीरे गुम हो जाने की पीड़ा को व्यक्त करती है।
- जब ख़त पहुँचते थे, भरोसा पहुँचता था
- पेशा बचा, पर आदमी छूट गया
- गति की दुनिया में मरता ठहराव
- सम्मान, कर्तव्य और बदलती सभ्यता
डॉ. प्रियंका सौरभ
वह साइकिल नहीं चलाता था,
वह समय को थामे चलता था।
थैले में सिर्फ़ ख़त नहीं होते थे,
किसी माँ की प्रतीक्षा,
किसी बेटे का सपना होता था।
ख़ाकी कपड़ों में लिपटा आदमी,
नक़्शों से बड़ा भरोसा था।
नाम लेकर बुलाया जाता था,
क्योंकि हर गली से रिश्ता था।
आज समय उड़ता है पंखों पर,
पर ठहराव मर गया है।
डिलीवरी हो गई है पेशा,
पर पेशे में आदमी मर गया है।
जो इज़्ज़त पद से नहीं,
कर्तव्य से उपजती थी—
वह तेज़ी की चकाचौंध में
चुपचाप कुचली गई है।
कहना बस इतना है सभ्यता से—
अगर ख़त फिर कभी लिखो,
तो पता केवल घर का नहीं,
आदमी का सम्मान भी लिखो।
वो जो ख़ामोशी से ख़त पहुँचाया जाता था,
असल में भरोसा पहुँचाया जाता था।
आज आवाज़ तेज़ है, समय कम है—
पर आदमी कहीं रास्ते में गिरा जाता है।
लेखक परिचय:
डॉ. प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर (पॉलिटिकल साइंस) कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)









