
सत्येन्द्र कुमार पाठक
सनातन धर्म में पितृ पक्ष का विशेष महत्व है। यह 15 दिन का वह समय है, जब हम अपने उन पूर्वजों को याद करते हैं, जिन्होंने हमें यह जीवन दिया। भाद्रपद पूर्णिमा से शुरू होकर अश्विन मास की अमावस्या तक चलने वाला यह काल पितरों के प्रति श्रद्धा, सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त करने का महापर्व है। यह सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह हमारी संस्कृति का वह हिस्सा है, जो हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखता है। ‘पितृ’ का अर्थ है पिता और पूर्वज, जबकि ‘पक्ष’ का अर्थ है पखवाड़ा। यानी यह वह पखवाड़ा है, जो हमारे पितरों को समर्पित है।
ऐसी मान्यता है कि इन 15 दिनों के दौरान, हमारे पूर्वज सूक्ष्म रूप में पृथ्वी लोक पर अपने वंशजों के पास आते हैं। वे यह देखने आते हैं कि उनके परिवार के लोग उन्हें याद कर रहे हैं या नहीं। इन दिनों में किए गए श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान से उनकी आत्मा को शांति मिलती है और वे प्रसन्न होकर अपने वंशजों को सुख, समृद्धि और सफलता का आशीर्वाद देते हैं। जब हम श्रद्धापूर्वक अपने पूर्वजों को याद करते हैं, तो इसे श्राद्ध कहा जाता है। ‘श्रद्धया इदं श्राद्धम्’ का अर्थ है ‘जो श्रद्धा से किया जाए, वह श्राद्ध है।’ यह एक ऐसा कर्म है, जिसके माध्यम से हम अपने पितरों के प्रति अपना सम्मान और आभार प्रकट करते हैं।
हमारे धर्म ग्रंथों में मनुष्य पर तीन तरह के ऋण बताए गए हैं: पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण। इनमें से पितृ ऋण को सर्वोपरि माना गया है, क्योंकि हमारे माता-पिता और पूर्वजों ने ही हमें जीवन और विकास का अवसर दिया है। पितृ पक्ष में श्राद्ध कर्म करके हम इस ऋण को चुकाने का प्रयास करते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी इस पर्व का महत्व है। पुराणों के अनुसार, मृत्यु के बाद आत्मा एक सूक्ष्म शरीर धारण करती है, जिसे प्रेत कहते हैं। इस सूक्ष्म शरीर में भूख-प्यास और मोह-माया का अतिरेक होता है। श्राद्ध कर्म में दिया गया भोजन, जल और पिंड इसी सूक्ष्म शरीर की तृप्ति के लिए होते हैं। जब हम जौ और चावल का पिंड अर्पित करते हैं, तो पितरों को उनके ऋण से मुक्ति मिलती है।
आश्विन मास की कृष्ण प्रतिपदा से ब्रह्मांडीय ऊर्जा का चक्र ऊर्ध्वमुख होने लगता है। इसी ऊर्जा के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर आते हैं। 15 दिन तक अपना-अपना भाग लेने के बाद, वे शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से वापस अपने लोक लौट जाते हैं। यही कारण है कि सूर्यास्त के बाद श्राद्ध करना अशुभ माना जाता है, क्योंकि उस समय पितरों की ऊर्जा लौट जाती है।
पितृ पक्ष के दौरान विशेष नियम
- सादा जीवन: इस दौरान सादा जीवन जीना चाहिए।
- तामसिक भोजन से परहेज: लहसुन, प्याज, शराब और मांसाहारी भोजन का सेवन नहीं करना चाहिए।
- पवित्रता: पिंडदान और तर्पण करने वालों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। बाल और नाखून नहीं काटने चाहिए।
- परोपकार: पशु-पक्षियों को भोजन देना अत्यंत शुभ माना जाता है।
- शुभ कार्य: इस दौरान विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश जैसे मांगलिक कार्य वर्जित होते हैं।
- पत्तल में भोजन: ब्राह्मणों को और स्वयं भी पत्तल में भोजन करना चाहिए।
श्राद्ध के प्रमुख प्रकार
धर्म शास्त्रों में श्राद्ध के कई प्रकार बताए गए हैं, जिनमें से मुख्य हैं:
- नित्य श्राद्ध: जो प्रतिदिन जल से किया जाता है।
- नैमित्तिक श्राद्ध (एकोद्दिष्ट): किसी विशेष व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत जैसे दशाह, एकादशाह आदि पर किया जाता है।
- काम्य श्राद्ध: किसी विशेष मनोकामना की पूर्ति के लिए किया जाता है।
- वृद्धि श्राद्ध (नान्दीश्राद्ध): पुत्र जन्म, विवाह जैसे शुभ अवसरों पर पितरों की प्रसन्नता के लिए किया जाता है।
- पार्वण श्राद्ध: पितृ पक्ष, अमावस्या या किसी पर्व तिथि पर किया जाता है।
- सपिण्डन श्राद्ध: पिंडों को मिलाकर पितरों में सम्मिलित करने की प्रक्रिया।
धर्मसिंधु ग्रंथ में श्राद्ध के लिए 96 अवसर बताए गए हैं, जिनमें पुण्य तिथियां, संक्रांतियां, पितृ पक्ष और अन्य योग शामिल हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने माता-पिता का अपमान करता है, उनकी मृत्यु के बाद उचित रीति-रिवाज से क्रियाकर्म नहीं करता या वार्षिक श्राद्ध नहीं करता तो उसे पितृ दोष लगता है।
पितृ दोष के लक्षण:
- परिवार में अशांति और झगड़े।
- वंश वृद्धि में रुकावट या संतान प्राप्ति में समस्या।
- आकस्मिक बीमारियां और संकट।
- धन में बरकत न होना।
- जीवन में सुख-सुविधाएं होने पर भी मन का असंतुष्ट रहना।
पितृ पक्ष में श्राद्ध कर्म करने से इन दोषों से मुक्ति मिलती है और जीवन में उन्नति होती है।
गया का महत्व
सनातन धर्म में गया को पितृ श्राद्ध का सबसे महत्वपूर्ण स्थान माना गया है। बिहार के गया जिले में स्थित यह तीर्थस्थल स्वयं भगवान विष्णु के चरण से पूजित है, जिसे विष्णुपद मंदिर कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां श्राद्ध करने से पितरों को सीधे मोक्ष की प्राप्ति होती है और व्यक्ति पितृ ऋण से हमेशा के लिए मुक्त हो जाता है। गया श्राद्ध का उल्लेख गरुड़ पुराण और भविष्य पुराण जैसे ग्रंथों में भी मिलता है। कथा के अनुसार, प्राचीन काल में गयासुर नामक एक दैत्य था, जिसने तपस्या से वरदान पाया था कि जो भी उसे देखेगा, वह पाप मुक्त हो जाएगा।
उसके इस वरदान से यमराज का कार्य प्रभावित होने लगा। देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। विष्णु ने यज्ञ अवतार लेकर गयासुर के वक्षस्थल पर यज्ञ किया और उसे यह वरदान दिया कि जो भी व्यक्ति गया में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करेगा, उसके पितरों को मुक्ति मिलेगी और उसे सभी ऋणों से छुटकारा मिलेगा। यहां के प्रमुख स्थानों में फल्गु नदी, ब्रह्मयोनि, प्रेतशिला, कागबलि, अक्षयवट और ब्रह्मसरोवर शामिल हैं। गया श्राद्ध की प्रक्रिया पुनपुन नदी में केश और नाखून कटवाने के बाद स्नान से शुरू होती है, जिसके बाद पूर्वजों को जलांजलि और पिंड अर्पित किए जाते हैं।
धार्मिक ग्रंथों में भगवान राम और भरत द्वारा गया में अपने पिता दशरथ का पिंडदान करने का भी उल्लेख मिलता है। पांडवों ने भी द्वापर युग में अपने पूर्वजों की तृप्ति के लिए गया में श्राद्ध किया था। पितृ पक्ष हमारे पूर्वजों के प्रति हमारी श्रद्धा, सम्मान और कृतज्ञता का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि हम अपनी जड़ों को न भूलें और उन लोगों के प्रति हमेशा आभारी रहें, जिन्होंने हमें जीवन दिया। यह एक ऐसा समय है जब हम अपने कर्मों को सुधारकर, सादगी और विनम्रता के साथ जीवन जीकर अपने पितरों को प्रसन्न कर सकते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं। यह सिर्फ एक कर्मकांड नहीं, बल्कि एक ऐसा पर्व है जो हमें परिवार के महत्व, परंपराओं के प्रति सम्मान और अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का संदेश देता है।
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