
सुनील कुमार माथुर, जोधपुर, राजस्थान
सफलता की राह अक्सर अकेलेपन और आलोचना से होकर गुजरती है। जब व्यक्ति असफल होता है तो समाज उसे उपहास की दृष्टि से देखता है, और जब वही व्यक्ति मेहनत और संघर्ष के बलबूते आगे बढ़ता है, तो वही समाज ईर्ष्या की निगाहों से उसे देखता है। यह विरोधाभास केवल आधुनिक समाज की नहीं, बल्कि मानवीय प्रवृत्ति की गहरी सच्चाई है।
ईर्ष्या का सामाजिक स्वरूप
सफलता से जलने वाले लोग स्वयं कभी आगे नहीं बढ़ पाते। वे दूसरों की प्रगति को देखकर असहज हो जाते हैं, क्योंकि उन्होंने स्वयं उस मार्ग पर चलने का साहस नहीं दिखाया होता। समाज में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं, जो न तो स्वयं आगे बढ़ते हैं और न ही किसी और को आगे बढ़ता देख पाते हैं। ऐसे लोगों को उनके हाल पर छोड़ देना ही बेहतर है, क्योंकि प्रतिक्रिया देना केवल समय और ऊर्जा की बर्बादी है।
विफलता से सीखने की संस्कृति
हर राह में विफलता के बादल छाए रहते हैं, पर जो व्यक्ति उन बादलों को चीरकर रोशनी तलाश लेता है, वही आगे बढ़ता है। वर्तमान समय में जो व्यक्ति परिस्थितियों से लड़ता है, वही सफल होता है। जो केवल किस्मत को कोसते रहते हैं, वे वहीं के वहीं ठहर जाते हैं। सफलता की कुंजी है – संघर्ष, आत्मविश्वास और निरंतर प्रयास।
राजनीति का सामाजिक विघटन
एक समय था जब परिवारों में शिक्षा, संस्कार और सहयोग की बातें होती थीं। पर आज राजनीति घरों तक पहुंच गई है। परिणामस्वरूप संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं, संबंधों में खटास बढ़ रही है और घर घर में मतभेद आम होते जा रहे हैं। इन सबका एक बड़ा कारण है मीडिया, खासकर टीवी धारावाहिकों का गलत प्रभाव, जहां राजनीति, षड्यंत्र और द्वेष को नाटकीय रूप में परोसा जाता है। ऐसे माहौल में व्यक्ति को विवेक से कार्य लेना चाहिए – हर निर्णय से पहले उसके सामाजिक, पारिवारिक और नैतिक परिणामों पर विचार करना आवश्यक है।
रिश्तों में बदलती संवेदनाएं
पहले जब कपड़े छोटे हो जाते थे, तो उन्हें छोटे भाई-बहनों को दे दिया जाता था। यह केवल कपड़ों का हस्तांतरण नहीं, बल्कि संबंधों की गर्माहट और संवेदनशीलता का प्रतीक था। लेकिन आज समाज में यह परंपरा खत्म हो गई है। आज न कपड़े सिले जाते हैं और न ही रिश्ते। मामूली मतभेद होते ही रिश्ते तोड़ दिए जाते हैं – चाहे वह मित्रता हो या खून का रिश्ता। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर पुराने, मजबूत और परखे हुए रिश्ते एक क्षण में खत्म हो सकते हैं, तो क्या नए रिश्ते स्थायी होंगे?
रिश्तों को निभाने की कला
रिश्तों को निभाने के लिए सहनशीलता, प्रेम, त्याग और ईमानदारी जैसे गुणों की आवश्यकता है। जब वृक्ष झुककर हमें फल और फूल देता है, तो क्या हम भी थोड़ी नम्रता और विनम्रता नहीं दिखा सकते? हर बार तर्क या जीत जरूरी नहीं – कई बार झुकने में भी जीत होती है। रिश्तों को बचाने के लिए संवाद, धैर्य और समझ सबसे जरूरी हैं।
निष्कर्ष
समाज में कामयाब लोगों से जलन और रिश्तों में असहिष्णुता – दोनों ही बीमारियां हैं। इनसे मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय है – आत्ममंथन, जागरूकता और मानवीय मूल्यों को पुनर्स्थापित करना। जब हम दूसरों की सफलता को स्वीकार करना और अपने रिश्तों को संजोना सीख जाएंगे, तभी हमारा समाज वास्तव में ‘समाज’ कहलाने योग्य बन पाएगा।
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