यजमानिक पेशा… यजमान अपने हित की बात खुद सोच नहीं सकता। वह भी धूर्त लोगों के कहने में पड़ जाता है। यजमान लोग ब्राह्मणों पर शासन किया करते हैं। अनेकों ऐसे कार्य हैं जिन्हें करने में पुरोहित की प्रतिष्ठा नष्ट होती है। यजमान का खुशामदी टट्टू बना रहना ही इन लोगों का प्रधान लक्ष्य हो गया है।
हमारे परिवार के लोगों का प्रधान पेशा कुछ भी नहीं है। वे खेती गृहस्थी या इस प्रकार का अन्य कोई व्यापार नहीं करते। ब्राह्मणों के जीवकोपार्जन का जो पेशा था वह महत्वहीन हो गया अब न तो ब्राह्मणों में वह त्याग तपस्या और दैवी बल रह गया है और न अब जनसाधारण की उनके प्रति कोई आस्था ही रह गयी है। अब उनका सिर्फ एक पेशा बाकी बचा रह गया है और वह है यजमान पुजाना। हमारे विचार से यह एक नित्य काम है। हमें इसके कटु परिणामों का अनुभव है।
मैं तो कहता हूं कि एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी यजमान पुजाकर मूर्ख बन जा सकता है। यजमान लोग भी अधिकांशतः मूर्ख ही होते हैं और वे यह भी नहीं समझते कि वास्तव में उनको किस बात में लाभ है। एक तो आजकल शुद्ध सरल और सात्विक कर्म को छोड़कर अनेक तरह के मनगढ़ंत कर्मकांड बना लिए गये हैं, उस पर भी आडंबर है। यजमानों का अधिकांश रुपया व्यर्थ ही इन कर्मकांडों को करने में खर्च होता है। आजकल पुरोहित भी स्वार्थी तथा मूर्ख होते हैं।
यजमान अपने हित की बात खुद सोच नहीं सकता। वह भी धूर्त लोगों के कहने में पड़ जाता है। यजमान लोग ब्राह्मणों पर शासन किया करते हैं। अनेकों ऐसे कार्य हैं जिन्हें करने में पुरोहित की प्रतिष्ठा नष्ट होती है। यजमान का खुशामदी टट्टू बना रहना ही इन लोगों का प्रधान लक्ष्य हो गया है।
उस पर भी इन्हें पूरा दरमाहा या दक्षिण नहीं मिलता। विशेष कहना व्यर्थ होगा। मूर्ख लोगों के विचार में भले ही इसमें तथ्य नहीं हो पर वास्तव में यह जघन्य तथा निंद्यकर्म है और आत्मा की तथा मान प्रतिष्ठा सम्मान के इच्छुक व्यक्तियों को इस पेशे को त्याग देना चाहिए। हमारे यजमानों में भी कुछ वैसे ही लोग हैं। ये अपने को बड़ा समझते हैं। हमारे प्रति इनकी अश्रद्धा है। ये हमारे कहे हुए पर विश्वास नहीं करते। हममें ये गलतियां खोजते हैं। इनके साथ रहने से हमारी उन्नति का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। त्याग में ही सब शक्ति है।
इनके घरों में जाकर मूक पशु का वध करवाना घोर पाप है। इनके झूठे भूखे देवताओं का पूजन करना अपनी आत्मा की अवज्ञा करना है। इन तुच्छ स्वार्थों को त्यागना ही बुद्धिमत्ता है। स्वार्थ मनुष्य को अंधा बना देता है। हमें इन निम्न श्रेणी के व्यवसायों को त्यागना चाहिए। अब आप पूछ सकते हैं कि आखिर इन यजमानों का सुधार कैसे हो। इसका उत्तर यही है कि ब्राह्मणों को पहले अपने चरित्र बल को उन्नत बनाना होगा।
पीछे संगठन के द्वारा ये अपनी शक्ति एवं ज्ञान तथा ब्राह्मणत्व के जरिए सदुपदेश तथा सद्मार्ग का रास्ता बना कर अपनी तथा अपने यजमानों की उन्नति कर सकते हैं।