बहरूपिया
बहरूपिया… आज के समय में कभी कभार ही बहरूपिए दिखाई देते हैं। इतना ही नहीं आज रोजी-रोटी की समस्या इनके समक्ष खडी हो गई है। अतः सरकार को चाहिए कि वो बहरूपिए के लिए कोई योजना चलाये। #सुनील कुमार माथुर, जोधपुर, राजस्थान
पहले बहरूपिया बनना एक कला थी और कुछ लोग जो रोजगार नहीं कर पाते थे वे भीख भी नहीं मांगते थे अपितु बहरूपिए बन कर ( स्वांग रच कर ) बाजारों में निकल पडते थे और आम जनता व दुकानदार उनके रूप को देखकर नकद राशि दे दिया करते थे और इनके परिजनों का जीवन यापन आसानी से हो जाता था। चूंकि बहरूपिया बन कर बाजार में घूमना भी कोई हर किसी के बस की बात नही थी।
एक तरह से बहरूपिए को देखकर लोग अपना अच्छा खासा मनोरंजन कर लेते थे। लेकिन टी वी, मोबाइल के आने के बाद लोग हर समय मोबाइल से चिपके रहते है ओर धीरे-धीरे बहरूपिए बनने की कला भी लुप्त होती गयी। पुराने लोग तो आज भी इनको सम्मान की दृष्टि से देखते है लेकिन वर्तमान पीढी इन्हें मजाक समझ कर इन बहरूपियों का भी मजाक उड़ाते हैं।
आज के समय में कभी कभार ही बहरूपिए दिखाई देते हैं। इतना ही नहीं आज रोजी-रोटी की समस्या इनके समक्ष खडी हो गई है। अतः सरकार को चाहिए कि वो बहरूपिए के लिए कोई योजना चलाये। उनके परिजनों को रोजगार दे या इस कला को आगे बढ़ाने के प्रयास करे ताकि बहरूपिए भी आत्मा सम्मान का जीवन व्यतीत कर सके।
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