***
उत्तराखण्ड समाचार

देशभर में ऑक्सीजन पहुंचाने वाले उत्तराखंड को चाहिए ग्रीन बोनस

राज्य में वन एवं पर्यावरण एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन लोकसभा चुनाव में उतरे उम्मीदवारों के बीच इस मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं हो रही है, जबकि जागरूक लोगों का मानना है कि राज्य के भविष्य के लिए पर्यावरण एवं विकास के बीच संतुलन की नीति बनाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।

देहरादून। उत्तराखंड सरकार ने वैज्ञानिक अध्ययन कराकर यह प्रमाणित करने की कोशिश की है कि राज्य के वनों से देश को सालाना एक लाख करोड़ की पर्यावरणीय सेवाएं मिल रही हैं। इसमें नदियों, पहाड़ों, झरनों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का योगदान जोड़ दें, तो यह तीन लाख करोड़ से अधिक तक पहुंच जाता है, पर देश को ऑक्सीजन देने वाले उत्तराखंड को इसके बदले में ग्रीन बोनस तक नहीं मिला।

अस्तित्व में आने के बाद से उत्तराखंड में ग्रीन बोनस की मांग हो रही है। साथ ही विकास के ऐसे मॉडल की वकालत हो रही है, जो विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित करे। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भी इकोनॉमी और इकॉलॉजी की वकालत कर रहे, लेकिन सच्चाई यह है कि उत्तराखंड सरीखे पर्वतीय राज्य में वन संरक्षण अधिनियम विकास की राह में अड़चन बन गया है।

2024 तक राज्य सरकार की 741 विकास योजनाओं पर इसलिए काम शुरू नहीं हो पा रहा, क्योंकि इनमें वनीय स्वीकृति नहीं मिल पाई है। इनमें सबसे प्रस्ताव अधिक 614 सड़कों के हैं। पेयजल के 47, सिंचाई के पांच, पारेषण लाइन के छह, जल विद्युत परियोजनाओं के दो, खनन के छह एवं अन्य के 61 मामले लंबित हैं, जिसमें 4650 हेक्टेयर वन भूमि हस्तांतरित होनी हैं। चुनावी सरगर्मी के बीच सड़कों का मुद्दा गरमा रहा है। सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाकर थक चुके ग्रामीणों को लगता है कि चुनाव का बहिष्कार करने से शायद उनकी समस्या की ओर ध्यान जा सके।

उत्तराखंड का 71.05% वन भूमि अधिसूचित है। 1980 से पहले इस भूभाग पर स्थानीय लोगों के अपने हकहकूक थे। लोग वन संपदा का संरक्षण भी करते थे और दोहन भी। वन संरक्षण कानून बनने के बाद से अपनी ही जमीन पर वृक्ष काटने के लिए वन महकमे से अनुमति लेनी होती है।

राज्य गठन के बाद उत्तराखंड में अवस्थापना विकास की योजनाएं विस्तार लेने लगीं, लेकिन वन संरक्षण अधिनियम भी बाधा बनने लगा। ऊर्जा राज्य बनने का सपना पर्यावरणीय सरोकारों के चलते टूट गया। चारधाम सड़क परियोजना भी पर्यावरणीय कारणों से पूरी नहीं हो पाई। उत्तराखंड पर्यावरण बनाम विकासकर्ताओं के संघर्ष का अखाड़ा बना हुआ है। पर्यावरण कार्यकर्ता नाजुक हिमालय में ऐसे मॉडल की वकालत कर रहे हैं, जो पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाए। दूसरी ओर विकासकर्ता हैं, जो चाहते हैं कि तरक्की के लिए वन संरक्षण कानून को कुछ नरम हो।

राज्य में वन एवं पर्यावरण एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन लोकसभा चुनाव में उतरे उम्मीदवारों के बीच इस मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं हो रही है, जबकि जागरूक लोगों का मानना है कि राज्य के भविष्य के लिए पर्यावरण एवं विकास के बीच संतुलन की नीति बनाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।

वन संरक्षण अधिनियम 1980 के तहत उत्तराखंड राज्य गठन के बाद सबसे अधिक 8,661 हेक्टेयर वन भूमि खनन के लिए हस्तांतरित हुई, जबकि दूसरे नंबर पर सड़क के लिए 9,294 हेक्टेयर वन भूमि हस्तांतरित की गई। पेयजल के लिए 165 हेक्टेयर, सिंचाई के लिए 70, पारेषण लाइन के लिए 2,811, जल विद्युत परियोजनाओं के लिए 2,250 एवं अन्य कार्यों के लिए 20,553 हेक्टेयर वन भूमि हस्तांतरित की गई।


1980 के वन अधिनियम और वाइल्ड लाइफ एक्ट में वन्य जीवों की रक्षा की बात कही गई है, पर स्थानीय लोगों के हक हकूकों पर विचार नहीं किया गया। वन कानून जनविरोधी है। पूरे उत्तराखंड में ज्यादती हुई है। जिसने भी यह कानून बनाया उसकी सोच अंग्रेजों वाली थी। इस कानून ने स्थानीय लोगों के अधिकार छीन लिए।
-किशोर उपाध्याय, भाजपा विधायक


वन विभाग विकास के साथ है। वन भूमि हस्तांतरण के मामलों में सबका सहयोग चाहिए। अधिकतर मामलों में देरी विभागों की ओर से आधे-अधूरे प्रस्ताव भेजने से होती है। समय-समय पर विभाग की ओर से निर्देश जारी होते हैं कि प्रस्ताव किस तरह से भेजे जाएं, जिससे उनमें देरी नहीं हो।
-रंजन मिश्रा, नोडल अधिकारी वन विभाग


Devbhoomi Samachar

देवभूमि समाचार में इंटरनेट के माध्यम से पत्रकार और लेखकों की लेखनी को समाचार के रूप में जनता के सामने प्रकाशित एवं प्रसारित किया जा रहा है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Verified by MonsterInsights