साहित्य लहर
कविता : सब हो जाते मन से छू मंतर

कविता : सब हो जाते मन से छू मंतर… मन से छू मंतर कभी चूमता हूं तुमको इसी पहर अब मन से तुम मानो कहने आई हो कल से व्याकुल अधीर होकर प्रेम नगर में बैठी मानो सच्ची रूह तुम्हारी आज बदन में पैठी… # राजीव कुमार झा
यौवन के
सुख सागर में
कितना उल्लास
उमंग समाया
तुमको बांहों में
भरकर
जिसने नवजीवन
पाया
काम क्रोध मद
मोह निरंतर
संग तुम्हारा पाकर
सब हो जाते
मन से छू मंतर
कभी चूमता हूं
तुमको इसी पहर
अब मन से
तुम मानो
कहने आई हो
कल से
व्याकुल अधीर
होकर
प्रेम नगर में बैठी
मानो सच्ची
रूह तुम्हारी
आज बदन में पैठी
सपनों की रानी
लगती
मन को बातों को
काश! ऐसे ही
कुछ दिन पहले
कहती
जाड़े के वे सुंदर
दिन बीत गए
हम कहीं अकेले
सागर तट पर
इतने दिन ऐसे
पड़े रहे
छोटे कपडों में यहां
युगल आकर
फेनिल लहरों में
खो जाते
कभी किसी दिन
ऐसी कविता
यू ट्यूब लाइव में
आकर तुम्हें सुनाते