साहित्य लहर

कविता : जंगल की हंसी

कविता : जंगल की हंसी…श्रृंगार की बेला यौवन का मेला तुम्हें अजनबी ने थोड़ी देर अपने पास से गुज़रते देखा संकोच की बातें बेकरार बनीं रहीं मुस्कुराती रातें किसी शहर की मुलाकातें अहसासों को लेकर सुबह की आहट तुम्हारी मुस्कान अकेलेपन मन की तरावट जंगल की हंसी… #राजीव कुमार झा

दोस्ती के बाद
तुमसे मिलकर
मेरा मन खुशियों से
भर जाता
कमल के फूलों की
महक से भरे
सरोवर में
गुलाब सा खिला

तुम्हारा चेहरा
अक्सर इसी वक्त
खिलखिलाता
प्यार के रंग-बिरंगे
फूलों से तुम
शाम को महकाती
शहर के बाजार में

तुम्हारी शानो शौकत को
देखकर
सितारों की बस्ती में
चांद की रोशनी
गुलज़ार हो जाती
यौवन की छटा से
तुम जिंदगी में
सम्मोहन को जगाती

वज्जिका भाषाई का रूप बज्जिका का सोलह संस्कार गीत

यार की बांहों में
कभी आधी रात तक
बादलों की
कड़कड़ाहट में
गुल खिलाती
सावन की हवा से
तुम भीग जाती
अपने दामन को
प्यार के फूलों से
सजाती

श्रृंगार की बेला
यौवन का मेला
तुम्हें अजनबी ने
थोड़ी देर अपने पास से
गुज़रते देखा
संकोच की बातें
बेकरार बनीं रहीं
मुस्कुराती रातें

किसी शहर की मुलाकातें
अहसासों को लेकर
सुबह की आहट
तुम्हारी मुस्कान
अकेलेपन मन की
तरावट
जंगल की हंसी
तुम उस दिन से
तन मन में आकर बसी


कविता : जंगल की हंसी...श्रृंगार की बेला यौवन का मेला तुम्हें अजनबी ने थोड़ी देर अपने पास से गुज़रते देखा संकोच की बातें बेकरार बनीं रहीं मुस्कुराती रातें किसी शहर की मुलाकातें अहसासों को लेकर सुबह की आहट तुम्हारी मुस्कान अकेलेपन मन की तरावट जंगल की हंसी... #राजीव कुमार झा

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