कविता : चुभन

कविता : चुभन… समय तुमने झुकाया महारथियों को, हंसते घर में क्रंदन और अंधेरे घर में। भर दी रौशनी का समय तुम्हारे सामने धन,पद, प्रतिष्ठा रुप,यौवन सब है खोखले नहीं है इनका कोई मोल, जिसपर इतना इतराते हो। #संगीता सागर, मुजफ्फरपुर (बिहार)
तुम भर देते हर ज़ख्म कितने गहरे,
पर, उसकी चुभन कहां हो पाती खत्म।
समय व्यर्थ हो जाते हैं सभी शब्द
सामने बदल जाते जाते खोखले।
बदल जाते हैं समय के साथ शब्द,
रिश्ते, पहचान और अनंत:करण।
समय तुमने झुकाया महारथियों को,
हंसते घर में क्रंदन और अंधेरे घर में।
भर दी रौशनी का समय
तुम्हारे सामने धन,पद, प्रतिष्ठा
रुप,यौवन सब है खोखले
नहीं है इनका कोई मोल,
जिसपर इतना इतराते हो।
तेजी से बीतते जा रहो हैं।
तेरे साथ,दौड़ती जा रही है,
तुम्हारे और मेरी उम्र की दौड़ में,
चाहत है तुमसे,इक वादे की
“कल जब ढ़ल जाएगी मेरी उम्र
लड़खड़ाने लगे मेरे कदम,
शेष हो जाएगी जूझने की शक्ति
तब साथ छोड़गे सारे,आज अपने
तब, तुम देना मेरा साथ गुनगुना ना
कोई मधुर गीत और,मैं सो जाऊंगी
तुम्हारी गोद में इक सूकून की नींद
फिर, कभी न जाने के लिए
कभी न जाने के लिए…..।