कविता : घी के दीये
कविता : घी के दीये… कभी बुलाती याद तुम्हारी आती बरसात में हवा झूमती गीत सुनाती सुबह में कलियां फूलों को अपने पास बुलातीं प्रेम प्यार के भूले बिसरे दिन सबको आज सुहाते तुमको देखा मैंने चांद को अपने पास बुलाते सितारों से आज गगन को #राजीव कुमार झा
तुम्हारे पास आकर
सबका मन
मौसम का दीवाना हो जाता
आदमी उस दिन
घी के दिये चन्द्रमहल में
जलाता
दोपहर की धूप में प्यार के
पतंगों को उड़ाता
बारिश में बादल तुम पर
धौंस जमाता
यह सोलहवां साल
अब सेव से लाल
तुम्हारे कोमल गाल
हवा के हल्कों झोकों में
लहराते
तुम्हारे काले घने रेशमी
बाल
सुबह नहाकर
चेहरे पर तरोताजगी
लेकर
घर बाहर के
अपने सारे कामों में
तुम तन मन से
देर रात तक लगी
रही हो
अब प्यार की बांहों में
खोयी हो
बेहद सुंदर लगते
साफ सुथरे
बिस्तर पर बिखरे
हीरे मोती लाल
जंगल में कुलांचे भरती
मस्त मगन हिरणी की
चाल
मधु पराग से भरा हुआ
महक उठा
यह प्रेम का मीठा ताल
प्यार की राहों में
यह बिखरे मन की
गठरी
यहां सिमट गयी
जीवन की पटरी
आसपास के
ऊंचे पर्वत के नीचे
सपनों की घाटी में
तुम हंसकर
कभी बुलाती
याद तुम्हारी आती
बरसात में हवा झूमती
गीत सुनाती
सुबह में कलियां
फूलों को अपने पास
बुलातीं
प्रेम प्यार के
भूले बिसरे दिन
सबको आज सुहाते
तुमको देखा मैंने
चांद को अपने पास
बुलाते
सितारों से
आज गगन को
उसे सजाते
थोड़ी देर हुई
चांदनी देर रात तक
ऐसी लगती
मानो वह हो
सबसे अलग अनछुई