
सुनील कुमार माथुर, जोधपुर, राजस्थान
एक वक्त था जब मोबाइल का जमाना नहीं था। उस वक्त लोग पत्र लिखा करते थे और पोस्टमैन का इंतजार करते थे। वह दिन मैं तीन बार टन टन की घंटी बजाते हुए खाकी वर्दी में साईकिल पर आता था। पहली व तीसरी डाक साधारण डाक होती थी व दूसरी डाक में रजिस्टर्ड पत्र व मनी आर्डर आते थे। पोस्टमैन ढेर सारी डाक लाता था। उसी से सुख-दुःख के समाचार मालुम पड़ते थे। लेकिन समय ने ऐसा करवट लिया कि आज पोस्टमैन को देखने के लिए तरस गये।
डाक व लेटर बाक्स का चोली दामन का साथ था। आज मोबाइल ने सब कुछ छिन लिया है। आज की युवाशक्ति ने तो शायद ही पोस्टमैन को देखा होगा। पहले तो परीक्षा में एक सवाल आता था कि पोस्टमैन पर लेख लिखों। लेकिन बदलती दुनियां में सब कुछ बदल गया। लेटर बाॅक्स के पास एक दिन खड़े-खड़े मैं अपने मित्र से बातचीत कर रहा था तभी लेटर बाॅक्स बोला, हे मेरे साहित्यकार बंधु! कभी हमारी पीड़ा को भी सुन लिया करों। आज के इस प्रगतिशील समाज में जो नेट व इंटरनेट की क्रांति आई हैं उसके चलते हमारा जीवन नर्कमय हो गया हैं। कोई भी व्यक्ति आज इस लेटर बाॅक्स की सुध नहीं ले रहा हैं और हर कोई व्हाट्सएप और मेल की ओर दौड़ रहे हैं।
एक समय था जब हमारा डंका बजता था। दिन भर हमारे पास लोगों का आना-जाना लगा रहता था। हमारे काफी बस्ती रहती थी। कभी-कभी तो देर रात में भी लोग आकर अपनी डाक पोस्ट कर जाते थे ताकि सवेरे पहली निकासी में उनकी डाक निकल जाएं और शीघ्रता से अपने गंतव्य स्थल पर पहुंच जाएं। लोग आते और कोई पोस्टकार्ड, कोई अंतर्देशीय पत्र तो कोई लिफाफा पोस्ट करने आता था। वही दूसरी ओर सरकारी डाक थोक के भाव आती थी और मन में अपार खुशी होती थी। डाक निकासी वाला कर्मचारी भी डाक निकालते वक्त प्रसन्न होता था। लेकिन आज इस लेटर बाॅक्स में अपनी डाक पोस्ट करने के लिए कभी-कभार ही कोई आता हैं। ऐसा लगता हैं कि आज लेटर बाॅक्स का लाल रंग खतरे का निशान बन गया हैं। आज लोगों ने हम से दूरी बना ली हैं।
जहां पहले दिन भर हमारे पास चहल-पहल रहती थी, थोड़ी-थोड़ी देर में आकर कोई न कोई पत्र डाल जाता था और डिब्बा भर जाता था वहीं हमारा समय आसानी से निकल जाता था। वहीं आज हम वीरान से व खालीपन महसूस कर रहे हैं। पहले जब कोई डिब्बे में पत्र डालते थे तो ऐसा लगता था कि कोई द्वार खटखटा रहा हैं। दिन भर पत्रों की बस्ती रहती थी लेकिन आज मैं वीरान सा हो गया हूं। लगता हैं कि व्हाट्सएप और मेल ने आज मुझे वृद्धाश्रम में पहुंचा दिया हैं। आज तो डाक का प्रचलन न के बराबर हो गया हैं। यहीं वजह है कि आज अनेक स्थानों से लेटर बाॅक्स हटा दिये गयें हैं और आज की पीढ़ी तो लेटर बाॅक्स क्या होता हैं व कैसा होता हैं यह मात्र किताबों में ही देख पाती हैं चूंकि आज हर चौराहे व मोहल्ले में हम दिखाई नहीं देते हैं। या तो डाकघरों के बाहर या उसके आसपास या कहीं-कहीं ही हम दिख पाते हैं।
आज लेटर बाॅक्स में इक्के-दुक्के ही पत्र आते हैं जिसकी वजह से दिन-रात अकेलापन महसूस होता है। मेरे खाली रहने से व कम डाक पोस्ट होने से अनेक डाकघर जो छोटे डाकघर कहलाते थे वे बंद हो गयें। अब डाक विभाग नई बस्तियों में लेटर बाॅक्स भी नहीं लगाती हैं भले ही वहां पत्रकार, साहित्यकार व पत्र लेखक क्यों न रहते हो। आज हालत यह हैं कि कम डाक की वजह से डाक निकासी वाले अंकल भी लेटर बाॅक्स कभी-कभार ही खोलते हैं चूंकि कोई भी पूछने वाला नहीं है कि निकासी नियमित रूप से होती हैं या नहीं। लेटर बाॅक्स नियमित रूप से नहीं खुलने से बाहर की शुद्ध व ताजी हवा को भी तरस जाते हैं। कोरोना काल का वक्त तो ऐसा था कि हमारे पास कभी कोई भी सुध लेने नहीं आया।
अतः हे प्रभु! इस नेट व इंटरनेट सेवा को बंद करों और पुनः डाक सेवा को जीवनदान दीजिए ताकि एक बार पुनः जनता-जनार्दन पत्रों की ओर अधिक से अधिक रूझान कर सकें और पोस्टमैनों के पुनः दर्शन कर आज की युवापीढ़ी को उनका महत्व समझा सकें।
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Nice article