
सत्येन्द्र कुमार पाठक
करपी, अरवल, बिहार
बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका है, और क्या खूब समय चुना गया है! एक तरफ सनातन संस्कृति का महा-उत्सव—धनतेरस, छोटी दिवाली, दिवाली, गोवर्धन पूजा, भैया दूज—और ऊपर से बिहार का महापर्व छठ! यानी, एक साथ आस्था, परंपरा और लोकतंत्र का भव्य कॉकटेल। चुनावी तिथियाँ (6 और 11 नवंबर) भी ऐसी सेट हुई हैं कि त्योहारों की ख़ुशी सीधे राजनीतिक गलियारों की गहमागहमी में जा घुसी है। चुनाव आयोग ‘जागरूकता’ का शंखनाद कर रहा है, और दलगत पार्टियाँ—भाजपा, जदयू, हम, लोजपा, कांग्रेस, जनसुराज, भाकपा माले… (नाम इतने कि गिनती लंबी हो जाए)—अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए मैदान में हैं।
जनता को ‘लुभावने नारे और आश्वासनों’ की चाशनी पिलाई जा रही है, जो हर चुनाव का स्थायी प्रसाद होता है। नेताजी आ रहे हैं तो ‘शिक्षा’ और ‘विकास’ की बातें हो रही हैं, और जाते-जाते किसी गरीब के घर ‘प्रतीकात्मक’ दाल-रोटी खाकर गरीबी मिटाने का नाटक कर रहे हैं। पर इस चुनावी और पर्वमय माहौल में एक चीज है जो सबसे तेज़ भाग रही है, और वो है महंगाई। अफसोस, महंगाई इस चुनावी युद्ध में ‘गौण’ है। ‘गौण’ यानी वह अनाथ बच्चा जिसे सबने छोड़ दिया है।
चुनाव घोषणा से पहले रोजमर्रा की सामग्री का दाम ‘संतुलन’ में था, और अब तो जैसे उसे ‘आसमान छूने’ की प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल मिल गया हो। सब्जियों का दाम सुनकर मतदाता का दिल नहीं, बल्कि पॉकेट रो रहा है। आलू-प्याज जैसे आम आदमी के दोस्त अब 40 रुपये न्यूनतम और गोभी-टमाटर जैसे शाही सब्ज़े 80 से 100 रुपये किलो बिक रहे हैं। यानी, इस दिवाली आपको ‘दीपक’ तो जलाने हैं, पर शायद ‘सब्ज़ी’ के नाम पर सिर्फ ‘पानी’ ही उबालना पड़ेगा।
धनतेरस पर बर्तन खरीदने हैं, दिवाली पर मिठाई और छठ पर सूप-डाला भरना है, लेकिन हर चीज़ का दाम देखकर जनता सोचने के लिए विवश है—पहले पेट भरें या वोट दें? और हमारे नेता? वे अपने चुनाव प्रचार में इतने मशगूल हैं कि उन्हें आसमान छूते सब्ज़ियों के दाम नहीं, सिर्फ अपनी जीत के आकाशीय नारे सुनाई दे रहे हैं। उनके लिए महंगाई एक साहित्यिक उपमा है, जबकि आम जनता के लिए यह दैनिक बजट का कसाई है।
वाह रे लोकतंत्र! जब चुनाव नहीं थे, तो सब्ज़ी सस्ती थी, पर अब जब वोट की भीख मांगी जा रही है, तो दाम सातवें आसमान पर हैं। ऐसा लगता है कि सब्ज़ी विक्रेताओं को पता है कि जनता त्योहार में तो खरीदेगी ही, चाहे नेता कोई भी वादा करे! इसीलिए, इस चुनावी-पर्व के मौसम के असली विजेता तो गली-मोहल्ले के सब्ज़ी विक्रेता हैं, जिनकी अब बल्ले-बल्ले है!