
सूचना विभाग में पारदर्शिता पर पर्दा : ‘हिन्दी विवेक’ साप्ताहिक की जगह भेज दी ‘मासिक’ की फाइल, सूचना अधिकारी पर लापरवाही का आरोप
राज शेखर भट्ट
देहरादून। उत्तराखंड के सूचना एवं लोक संपर्क विभाग में एक बार फिर सूचना अधिकार अधिनियम (RTI) के तहत पारदर्शिता की पोल खुल गई है। विभाग की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए एक आवेदक ने 13 अक्टूबर 2025 को अधिनियम की धारा 19(1) के अंतर्गत प्रथम अपील दायर की है। मामला केवल सूचना देने या न देने का नहीं, बल्कि गलत सूचना देकर पूरे प्रकरण को “ठंडे बस्ते” में डालने का है। प्रकरण के अनुसार, प्रार्थी ने 01 सितम्बर 2025 को एक आरटीआई आवेदन दाखिल किया था, जो विभाग को 02 सितम्बर को प्राप्त हुआ।
आवेदन में दिसम्बर 2022 से अगस्त 2025 तक मुंबई के साप्ताहिक “हिन्दी विवेक” को निजी एवं विभागीय दर पर दिए गए विज्ञापनों से संबंधित आरओ, आदेश, नियम और भुगतान की सत्यापित छायाप्रतियाँ मांगी गई थीं। परंतु विभाग ने न तो मांगी गई सूचना दी, न ही विषय को सही से समझने की कोशिश की — उल्टा, “हिन्दी विवेक साप्ताहिक” की जगह “हिन्दी विवेक मासिक” से जुड़ी जानकारी भेज दी। यानी कि न आवेदन का विषय समझा गया, न सूचना का बिंदुवार जवाब दिया गया। अब सवाल उठता है — क्या यह गलती थी या जानबूझकर किया गया भ्रम फैलाने का प्रयास?
सूचना अधिकारी पर यह आरोप है कि उन्होंने आवेदन को गंभीरता से नहीं लिया और “मामला निपटाने” के लिए किसी भी प्रकार की सूचना भेज दी, चाहे वह सही हो या गलत। इस रवैये से न केवल आरटीआई कानून की भावना को ठेस पहुंची है बल्कि विभाग की पारदर्शिता पर भी बड़ा प्रश्नचिह्न लग गया है। प्रार्थी ने अपनी अपील में स्पष्ट कहा है कि विभाग द्वारा भेजी गई सूचना “अधूरी, भ्रामक और गलत” है। इसलिए सही और पूरी सूचना धारा 7(6) के तहत निःशुल्क उपलब्ध कराई जाए, साथ ही सूचना शुल्क के रूप में जमा 12 रुपये की राशि वापस की जाए या समायोजित की जाए।
अपील में यह भी कहा गया है कि लोक सूचना अधिकारी को निर्देशित किया जाए कि वे मांगी गई सूचना — आरओ, आदेश, नियम और भुगतान की प्रतियों — को बिंदुवार, सत्यापित रूप में उपलब्ध कराएं। सूत्रों का कहना है कि यह पहला मामला नहीं है जब विभाग ने आरटीआई आवेदनों को “रूटीन औपचारिकता” समझकर निपटा दिया हो। कई बार आवेदकों को गलत फाइलें, अधूरी जानकारी या “सूचना उपलब्ध नहीं है” जैसे जवाब देकर टरका दिया जाता है। लोक संपर्क विभाग, जिसका कार्य स्वयं सरकारी नीतियों और पारदर्शिता का प्रचार-प्रसार करना है, वही जब सूचना छिपाने या गुमराह करने में लग जाए, तो जनता का विश्वास कैसे कायम रहेगा?
प्रश्न यह भी उठता है — क्या विभाग जानबूझकर “मासिक” और “साप्ताहिक” के नामों का खेल खेलकर असल दस्तावेज़ों को छुपाने की कोशिश कर रहा है? क्या मुंबई स्थित “हिन्दी विवेक साप्ताहिक” को दिए गए विज्ञापनों में कोई गड़बड़ी या अनियमितता है, जिसे छुपाने के लिए गलत सूचना भेजी गई? फिलहाल मामला प्रथम अपील अधिकारी के पास पहुंच चुका है, और सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि क्या अब सही सूचना दी जाएगी या यह फाइल भी “सूचना के जंगल” में खो जाएगी।
कुल मिलाकर, यह प्रकरण सिर्फ एक आरटीआई आवेदन का नहीं, बल्कि उस सोच का प्रतीक है जो पारदर्शिता के नाम पर अपारदर्शिता को बढ़ावा देती है। यदि खुद सूचना विभाग ही सूचना छिपाएगा, तो बाकी विभागों से जनता क्या उम्मीद करे?