
राजीव कुमार झा
[box type=”note” align=”alignleft” class=”” width=”100%”]कविता लेखन की ओर कब और कैसे झुकाव हुआ? शुरू में किन कवियों ने आपको प्रभावित किया?
संगीत के प्रति बचपन से ही गहरी आसक्ति रही है। हिंदी फिल्मों के गीत तथा भोजपुरी के लोकगीतों को गाता भी था। अचानक गीत लिखने का विचार आया। कुछ गीत लिखे, तो उसे सहपाठियों ने पसंद भी किया। कालांतर में हरिवंशराय बच्चन के गीत काव्य से प्रभावित होकर प्रेम कविताएं लिखीं।
इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ाव के बाद सामाजिक संदर्भ में कविता लिखना शुरू किया। जनगीत भी लिखा। हिंदी में अरुण कमल और उर्दू में कैफी आजमी की रचनाओं ने मुझे काफी प्रभावित किया है। कुमार विकल और केदारनाथ सिंह की कविताएं भी बहुत हांट करती रही हैं।
[box type=”note” align=”alignleft” class=”” width=”100%”]अपने बचपन घर परिवार पढ़ाई-लिखाई के बारे में बताएं?
[/box]मेरा जन्म एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ है। मेरे दादा डालमियानगर के सुगर फैक्ट्री में फीटर थे। पिता एक प्राइवेट संस्थान में कार्य करते थे। लेकिन, दादा के सेवा निवृत होने पर पिताजी ने आटा चक्की लगा लिया। इंटरमीडिएट के बाद घरेलू वजह से पढ़ाई छूट गई। लेकिन, स्वाध्याय जारी रहा।
मैं बचपन से ही बेहद संवेदनशील रहा हूं। एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा। तब मेरी उम्र दस- ग्यारह साल की रही होगी। एक दिन मैं अपने दालान पर गया, तो देखा कि बगल वाली परती जमीन की जुताई हो गई है। उस जुताई वाले खेत को देखकर मुझे आंतरिक खुशी हुई। मैं उस खेत में कुछ देर तक दौड़ता रहा। फिर थककर अपने दालान में आकर बैठ गया।
तब मेरे एक पड़ोसी ने पूछा- खेत में क्यों दौड़ रहे थे ? मैंने कोई जवाब नहीं दिया। आज उस घटना की मनोवैज्ञानिक विवेचना करता हूं, तो यह समझ में आया कि खेत लंबे समय से परती थी। जब उसकी जुताई हुई, तो उसकी जड़ता खत्म हो गई। खेत नूतन अवस्था में थी। नूतनता सौंदर्य है। और उसी सौंदर्य ने मुझे अभिभूत कर दिया था। खेत में दौड़ना उस सौंदर्य से एकाकार होना या प्रसन्नता से नृत्य करना भी कहा जा सकता है
[box type=”note” align=”alignleft” class=”” width=”100%”]आपका रंगकर्म से लगाव रहा है. आपने किन-किन नाटकों में अभिनय किया. हिंदी में नुक्कड़ नाटक किसी जमाने में खूब लोकप्रिय हुए, लेकिन अब इसका प्रचलन कम होता जा रहा है! लघु पत्र पत्रिकाओं में भी प्रगतिशील चेतना की बातें औपचारिक प्रतीत होने लगी हैं. अब इनका प्रकाशन लोग सरकारी विज्ञापन प्राप्त करने के लिए करने लगे हैं? इसके बारे में बताएं?
[/box]मैं छात्र जीवन से ही नाटकों में अभिनय करने लगा था। इप्टा से जुड़ा तो देश को आगे बढ़ाओ, जनता पागल हो गई है, मशीन आदि कई नुक्कड़ नाटक किया। इसके अलावा भोजपुरी फिल्म हमार दूल्हा, घर- गृहस्थी, वाह जीजा जी आदि कुछ फिल्मों में भी अभिनय करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक भोजपुरी फिल्म शिव चर्चा का संवाद लेखन भी किया। इस फिल्म के निर्देशक अशोक घायल थे।
अस्सी के दशक में अनेक लघु पत्रिकाएं निकल रही थी। मैंने भी मनोज कुमार झा और सतीश सारंग के साथ मिलकर लघु पत्रिका वैचारिक कलमकार का प्रकाशन शुरू किया था। इसके कुछ अंकों की चर्चा वरीय साहित्यकार दिविक रमेश ने सारिका पत्रिका में की थी। प्रकाशन के लिए आर्थिक प्रबंध जरूरी है। बगैर विज्ञापन के पत्रिका का प्रकाशन संभव नहीं है। फिर भी अनेक साथी विभिन्न प्रदेशों में स्तरीय लघु पत्रिका निकाल रहे हैं।
मैं जन आंदोलन से जुड़ा रहा। गांव- कस्बों से भी जीवंत जुड़ाव रहा। इसीलिए थोड़ी अलग धार तथा शिल्प भी मेरी कविताओं में दिख सकती है। जन आंदोलन से कटे रचनाकारों की रचनाओं में वो आग नहीं दिखेगी, जो कैफी आजमी, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, भीष्म साहनी, रेणु आदि के लेखन में नज़र आती है।
[box type=”note” align=”alignleft” class=”” width=”100%”]आप प्रगतिशील धारा के कवि माने जाते हैं. इस आंदोलन से अपने जुड़ाव के बारे में बताएं।
[/box]सत्तर के दशक में जब बिहार में जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति नामक आंदोलन शुरू किया था , तो मैं छात्र संघर्ष समिति से जुड़ गया था। इमरजेंसी लगी तो कोलकाता से एक ट्रेड यूनियन लीडर मो. कलाम भागकर डेहरी शहर में आये थे। यहां उनके छोटे भाई की दुकान थी। मेरे मोहल्ले में रहते थे। उनसे रोजाना मुलाकात होती थी। क्रांति और संपूर्ण क्रांति के सवाल पर कलाम नेता ने मुझे शहीदे आजम भगत सिंह के दोस्त शिव वर्मा की लिखी हुई कुछ पुस्तिकाएं दी।
उसे पढ़ा तो सामंतवाद, पूंजीवाद और समाजवादी समाज के बारे में जाना। इसके पूर्व मैं राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की पाली शाखा का मुख्य शिक्षक रह चुका था। मार्क्सवाद के प्रति आकर्षित हुआ तो कम्युनिस्ट पार्टी के करीब हो गया। उसके बाद पहले इप्टा और फिर पीडब्लूए से जुड़ा। कविवर कन्हैया, खगेंद्र ठाकुर, नंद किशोर नवल, अरुण कमल आदि साहित्यिक विभूतियों के सानिध्य से मेरी प्रगतिशील चेतना विकसित हुई।
मैंने वर्ष 1980 में डेहरी में हिंदी, उर्दू एवं भोजपुरी के रचनाकारों को एकजुट करके रोहतास जिला प्रगतिशील लेखक संघ का गठन किया। 15 अप्रैल 1982 को पीडब्लूए का प्रथम सम्मेलन हुआ, जिसमें कैफी आजमी, डा. सुरेंद्र चौधरी, मथुरा प्रसाद नवीन, खगेंद्र ठाकुर, अरुण कमल, राजनंदन सिंह राजन, शंकर, अभय, नर्मदेश्वर तथा प्रख्यात नाटककार रामेश्वर सिंह कश्यप उर्फ लोहा सिंह भी शिरकत किए थे। उसके बाद बाबा नागार्जुन, भीष्म साहनी, गुलाम रब्बानी तांबां, अब्दुल बिस्मिल्लाह आदि अनेक साहित्यिक विभूतियाँ भी डेहरी आयीं।
[box type=”note” align=”alignleft” class=”” width=”100%”]आप डेहरी आन सोन के निवासी हैं. यह पुराना शहर है और इस शहर के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के बारे में बताएं!
[/box]डेहरी ऑन सोन नामकरण अंग्रेजी हुकूमत ने किया था। पहले इसे डेहरी घाट कहा जाता था। महानद शोणभद्र के तट पर बसा यह एक कस्बा था। शेरशाह सूरी ने यहां सराय बनवाया था। सोन के पूरब में मगध और पश्चिम में भोजपुरी प्रदेश है। प्राचीन संस्कृत साहित्य की दृष्टि से सोन के पूरब में कीकट तथा पश्चिम में करुष प्रदेश था।
देहरी यानी डेहरी घाट से आवागमन होता था। इसीलिए यह प्राचीन काल से महत्वपूर्ण रहा है। डेहरी में सोन से बैलगाड़ी या घोड़े के आवागमन के लिए प्राचीन पथ बना हुआ है। उस पर अशोक पथ अंकित है। बंग्ला के महान साहित्यकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने एक उपन्यास ‘ गृहदाह ‘ डेहरी में रहकर लिखी थी। उस उपन्यास के आधा हिस्से में डेहरी तथा आसपास के ग्रामीण इलाके की घटनाओं का जिक्र है।
कम्युनिस्ट नेता एसए डांगे के अनुसार सुभाषचंद्र बोस को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने की रणनीति समाजवादी विचारधारा के नेताओं ने डेहरी में बनायी थी। रामकृष्ण डालमिया ने जब डेहरी में कारखाना लगाया, तो यह कस्बा औद्योगिक नगरी के रूप में चर्चित हो गया। रोहतास उद्योग समूह के बंद होने के बावजूद डालमियानगर में हर साल अखिल भारतीय लघु हिंदी नाटक प्रतियोगिता का आयोजन होता चला आ रहा है। यह इस कस्बाई नगर की सामाजिक व सांस्कृतिक जीवंतता का सबूत है।
[box type=”note” align=”alignleft” class=”” width=”100%”]आप अपने कविता संग्रह के बारे में बताएं ?
[/box]यूं तो मैंने लिखना सत्तर के दशक से शुरू किया था। अस्सी के दशक में पटना से प्रकाशित होने वाली पत्रिका उत्तरशती के प्रवेशांक में कविवर केदारनाथ सिंह के साथ मेरी भी एक कविता ‘ पेड़ ‘ छपी, जिसे बाबा नागार्जुन ने भी बेहद पसंद किया था। प्रभाकर माचवे ने उस कविता का मराठी में अनुवाद किया है, यह सूचना भी मुझे सुप्रसिद्ध आलोचक नंद किशोर नवल ने दी थी।
अस्सी के दशक में कुमार अनिल ने बिहार के दस युवा कवियों का साझा संकलन प्रकाशित किया था- आसपास की प्रतिध्वनियां। संकलन में संजय कुंदन, विजय कुमार तिवारी, अमिता, सच्चिदानंद प्रभाकर, कुमार अनिल के साथ मेरी भी कविताएं शामिल थीं। कालांतर में मेरा लेखन थम गया। भुखवा के मार से बिरहा बिसरी गइले, भूल गइले कजरी कबीर..। कई साल अस्वस्थ भी रहा।
साहित्यिक बंधुओं से भी नाता नहीं रहा। करीब तीस साल के बाद पटना गया, तो अरुण कमल, मुकेश प्रत्यूष, सुमंत शरण व डा. सुनीता गुप्ता से मिला। अब पुनः लेखन शुरू हुआ है। मित्रों ने जोर दिया तो अस्सी के दशक से लेकर हाल- फिलहाल तक लिखी कविताओं को लेकर एक संकलन तैयार किया- ” साझे का संसार ” । यह मेरा पहला काव्य संकलन है, जिसे अभिधा प्रकाशन ने छापा है। ब्लर्ब मेरे अग्रज कवि अरुण कमल ने लिखा है। संभवतः इस गंवई संस्कार वाले एक कम पढ़े- लिखे कवि की कविताएं साहित्य के सुधीजनों को पसंद भी आए!
¤ प्रकाशन परिचय ¤
![]() | From »राजीव कुमार झाकवि एवं लेखकAddress »इंदुपुर, पोस्ट बड़हिया, जिला लखीसराय (बिहार) | Mob : 6206756085Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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