कविता : भोर का तारा
राजीव कुमार झा
तुमको कितनी
बार बुलाया
जिसने मेरा मन
कहीं चुराया
वह रूप की रानी
कितनी सुंदर है
अरी सुंदरी !
यह सारा दिन
लहरों में
डूबता उतराता
सात समन्दर है !
गर्मी के इस
मौसम में
अब धूप खूब
कड़ी है
घर के बाहर
कहां खड़ी है
दुपहरी में
बाग बगीचों में
बैठी है!
बीत गया
सूनी राहों में
अंधियारा !
सुबह सवेरा
आया !
सूरज सबको
सही सलामत
पाया!
आंगन में आये
वह अपना
कोई
आज अतिथि
उसी समय
तुम घर के
बाहर आयी
चेहरे पर
मृदुल किरन
जो छाई
उसकी आभा
सबको
पुलकित करती
इस शांत
नदी के तट पर
आगे राहें
कहीं गुजरतीं
सागर सबको
देख रहा
मानो जीवन
बचा हुआ हो
कठिन काल में
तुमने खुद को
देखा
उसी दिशा में
तभी बिखरती
जीवन की
अनगिन रेखा!
अब सन्नाटा
टूट गया !
अंतिम पहर
उसी रात का
धीरे – धीरे
छूट गया!
स्वप्न सुंदरी आयी,
धरती पर
मुस्कान
चतुर्दिक छायी !
यह मौसम
खूब अकेला
यह दिन
उजड़ा मेला
गीत नाद के
मौन बने स्वर
अब कहां
सुनाई देते,
हरे भरे
पेड़ों पर
कितने उदास हैं
नये – नये
उगे यह पत्ते,
अरी सुंदरी !
सांसों की सरगम में
जीवनी बसता है
पास तुम्हारे
आकर कोई
अब घर पर
रहता है!
उसी सुराही का
ठंडा जल
अब अमृत है
आकाश में
बादल छाया
सबके मन के
सागर में
सुंदर ताप समाया,
बादल
आकाश में आया
बारिश में
किसने गीत
सुनाया
उसी पहर से पहले
नदी आज
चुप होकर बहती
सबके मन के
भीतर रहती
वह सबसे सुंदर
कविता तब रचती
जीवन का
यह उजियारा
भोर का तारा !
¤ प्रकाशन परिचय ¤
From »राजीव कुमार झाकवि एवं लेखकAddress »इंदुपुर, पोस्ट बड़हिया, जिला लखीसराय (बिहार) | Mob : 6206756085Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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