
(राज शेखर भट्ट)
उत्तराखंड का युवा वर्ग जिस आशा के साथ सरकारी नौकरियों की ओर देखता है, वह आशा यूकेएसएसएससी भर्ती घोटाले ने चकनाचूर कर दी है। यह सिर्फ एक परीक्षा का पेपर लीक मामला नहीं, बल्कि पूरे तंत्र की सड़ांध, राजनीति की मिलीभगत और प्रशासनिक ईमानदारी के पतन की कहानी है। वर्षों से तैयारी कर रहे हजारों युवाओं के सपनों को इस घोटाले ने रौंद डाला। जिन परीक्षाओं को “पारदर्शी भर्ती” कहा गया, वे दरअसल पैसों के खेल और सिफारिशों का अखाड़ा बन गईं।
सवाल यह नहीं है कि कितने दोषी पकड़े गए, सवाल यह है कि यह सड़ा हुआ तंत्र बना कैसे? और इतना बड़ा षड्यंत्र महीनों तक पकड़ा क्यों नहीं गया? धामी सरकार ने शुरू में कड़े शब्दों में कार्रवाई की बातें कहीं, कुछ गिरफ्तारियाँ भी हुईं, पर फिर सब ठंडा पड़ गया। आयोग भंग हुआ, लेकिन नया आयोग पुराने ढर्रे पर ही काम करता दिखा। जांच एजेंसियाँ धीमी हैं, चार्जशीटें अधूरी हैं और मुख्य आरोपियों के राजनीतिक रिश्तों पर चुप्पी गहरी है। जनता पूछ रही है — “क्या यह कार्रवाई है या लीपापोती?”
यूकेएसएसएससी घोटाले ने यह स्पष्ट कर दिया कि उत्तराखंड की भर्ती प्रणाली अंदर से सड़ चुकी है। फाइलों में पारदर्शिता नहीं, चयन में ईमानदारी नहीं और निर्णय में जवाबदेही नहीं। सरकारी पद अब योग्यता से नहीं, ‘संपर्कों’ से तय होते दिख रहे हैं। यह लोकतंत्र नहीं, “दलालतंत्र” का संकेत है। किसी राज्य की सबसे बड़ी पूंजी उसका युवा वर्ग होता है। जब वही वर्ग हताश होकर सड़कों पर उतरता है, तो यह सिर्फ एक परीक्षा का मुद्दा नहीं रह जाता — यह भरोसे के तंत्र के टूटने की त्रासदी बन जाता है।
बेरोज़गारी की आग में झुलसते युवाओं के लिए यह घोटाला केवल अपराध नहीं, अन्याय की पराकाष्ठा है। यूकेएसएसएससी घोटाला उत्तराखंड की राजनीति पर एक स्थायी धब्बा है। अगर इस प्रकरण से भी सरकार ने सबक नहीं सीखा, तो यह आने वाली पीढ़ियों को यही सिखाएगा कि ईमानदारी अब केवल किताबों में बची है। धामी सरकार के लिए यह केवल परीक्षा घोटाला नहीं, विश्वास का इम्तिहान है — और अब तक वह इस इम्तिहान में असफल साबित हुई है।