
सत्येन्द्र कुमार पाठक
मनुस्मृति, जिसे ‘मानव धर्मशास्त्र’ भी कहा जाता है, भारतीय धर्मशास्त्रों की आधारशिला और प्राचीन काल से चली आ रही सामाजिक, नैतिक और कानूनी संहिता है। यह ग्रंथ सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर मोक्ष के मार्ग तक, मनुष्य के जीवन के हर पहलू को नियंत्रित करने वाले नियमों और उपदेशों का एक विशाल संग्रह है। 12 अध्यायों और लगभग 2,684 श्लोकों में संरचित यह ग्रंथ सदियों से भारतीय समाज के लिए एक मार्गदर्शक रहा है, किंतु आधुनिक युग में यह गंभीर आलोचना और अकादमिक बहस का केंद्र भी बन गया है। सनातन धर्म की काल-गणना में, मनुस्मृति का संबंध 30 करोड़ से अधिक वर्षों की अवधि वाले ‘मन्वन्तर’ से जोड़ा जाता है। इस विशाल कालखंड के संदर्भ में, मनुस्मृति को ‘प्रथम समाज व्यवस्थापक’ द्वारा प्रख्यापित माना जाता है। यह तथ्य इसके ऐतिहासिक संवत काल (रचना के वास्तविक समय) से अलग है, जो इसे केवल एक प्राचीन कानूनी संहिता से ऊपर उठाकर ‘युग-धर्म’ के शाश्वत सिद्धांत के रूप में स्थापित करता है।
मनुस्मृति में जीवन के चार लक्ष्य (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) और चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) का विस्तृत वर्णन है। यह ग्रंथ शिक्षा, विवाह के प्रकार, दैनिक आचार-विचार, शुद्धिकरण के नियम और कर्म के सिद्धांत जैसे व्यक्तिगत आचरण से जुड़े विषयों पर गहन प्रकाश डालता है। विशेष रूप से, अध्याय VII और VIII में ‘राजधर्म’ और ‘न्याय व्यवस्था’ का विवरण राजा को केवल शासक नहीं, बल्कि धर्म और न्याय का रक्षक बताता है। राजा को ‘दंड’ (न्याय की शक्ति) का प्रतिरूप माना गया है, जिसे स्वेच्छाचारी न होकर धर्म के अधीन रहना होता है।
मनुस्मृति की सबसे विवादास्पद और केंद्रीय अवधारणा ‘वर्णाश्रम धर्म’ है, जिसके तहत समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में विभाजित किया गया था। आदर्श स्वरूप में ग्रंथ दावा करता है कि यह व्यवस्था मूलतः गुण (स्वभाव) और कर्म (कार्य) पर आधारित थी। इसका उद्देश्य समाज में एक कार्यात्मक व्यवस्था स्थापित करना था, जहाँ प्रत्येक वर्ण अपने विशिष्ट कर्तव्य का पालन करके सामाजिक संतुलन बनाए रखे। इसके समर्थक तर्क देते हैं कि मूल मनुस्मृति कर्म पर जोर देती है, और जन्म आधारित कठोरता बाद में जोड़ी गई है। समय के साथ, यह कर्म-आधारित व्यवस्था जन्म-आधारित ‘जाति प्रथा’ के कठोर रूप में परिवर्तित हो गई। इसी विकृति के कारण सामाजिक असमानता उत्पन्न हुई। शूद्रों को वेदाध्ययन और यज्ञिक कर्मकांडों से पूर्णतः वंचित कर दिया गया, जबकि ब्राह्मणों को अत्यधिक विशेषाधिकार प्राप्त हुए।
वर्णसंकरता: अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों के साथ ही कर्मों के अनुसरण से उत्पन्न वर्णसंकर जातियों का उल्लेख आज की जटिल जाति संरचना का आधार बना। मनुस्मृति में महिलाओं के स्थान को लेकर भी एक तीखा विरोधाभास दिखाई देता है।
सकारात्मक पक्ष (स्तुति): प्रसिद्ध श्लोक “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” (जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं) महिलाओं के प्रति आदर का भाव व्यक्त करता है। पुत्री को भी पुत्र के समान आदरणीय माना गया है और स्त्री को घर की लक्ष्मी तथा सुख-समृद्धि का प्रतीक बताया गया है।
नकारात्मक पक्ष: इसके विपरीत, ग्रंथ में ऐसे प्रावधान भी हैं जो महिलाओं की स्वतंत्रता को सीमित करते हैं, जैसे – “अप्राप्तयौवनात् रक्ष्येत्”, स्त्री कभी स्वतंत्र नहीं हो सकती; बचपन में पिता, युवावस्था में पति और बुढ़ापे में पुत्र के अधीन रहना। उन्हें संपत्ति के पूर्ण अधिकार से वंचित किया गया और उनके धार्मिक संस्कार केवल विवाह तक सीमित किए गए, जिससे उनकी सामाजिक और धार्मिक स्थिति पुरुषों की तुलना में गौण हो गई।
न्याय के प्रावधानों में भी जातिगत भेदभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। मनुस्मृति की दंड संहिता में: एक ही अपराध के लिए ब्राह्मण को कम या नाममात्र का दंड दिया जाता था, जबकि शूद्र को अत्यधिक कठोर (शारीरिक) दंड देने का विधान था। यह प्रावधान आधुनिक न्यायशास्त्र के समानता के सिद्धांत (Equality before the law) का खुला उल्लंघन है। सामाजिक असमानता और शोषण को वैधानिक आधार प्रदान करने के कारण ही मनुस्मृति, विशेषकर इसके जातिवादी और दंडात्मक श्लोक, आधुनिक युग में कड़ी आलोचना के शिकार हैं।
भारतीय संविधान और मनुस्मृति दो विरोधी दार्शनिक प्रणालियों का प्रतिनिधित्व करते हैं:
| सिद्धांत | भारतीय संविधान | मनुस्मृति |
|---|---|---|
| समानता | कानून के समक्ष सभी नागरिक समान (अनुच्छेद 14) | दंड और अधिकारों में वर्ण के आधार पर स्पष्ट असमानता |
| मानव अधिकार | जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 21, 19) | महिलाओं और शूद्रों के स्वतंत्रता के अधिकार पर अत्यधिक प्रतिबंध |
| न्याय | सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; समान दंड संहिता | भेदभावपूर्ण दंड संहिता, जिसमें जाति के अनुसार सजा में भिन्नता |
| शासन | लोकतंत्र: संप्रभुता जनता में निहित | दैवी उत्पत्ति वाला राजतंत्र |
भारतीय संविधान समानता, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय पर आधारित है, जबकि मनुस्मृति (अपने विकृत रूप में) एक पदानुक्रमित, असमानतावादी और पितृसत्तात्मक समाज को वैधानिक आधार प्रदान करती थी। यही कारण है कि डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को इस असमानतावादी विधान का सार्वजनिक रूप से दहन किया था — यह आधुनिक भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना में एक महत्वपूर्ण कदम था। मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ है जो एक ओर नैतिक आचार, ब्रह्मज्ञान और कुशल राजव्यवस्था के शाश्वत सिद्धांतों की बात करता है, जिसे इसके समर्थक आज भी प्रासंगिक मानते हैं।
दूसरी ओर, यह उन भेदभावपूर्ण सामाजिक नियमों के कारण विवादों के केंद्र में रही है, जिन्होंने सदियों से भारतीय समाज में शोषण और पदानुक्रम को बढ़ावा दिया। आधुनिक समालोचना का सार यह है कि इसके मूल, वेद-अनुकूल श्लोकों को — जो सार्वभौमिक नैतिकता और सदाचार की बात करते हैं — बचाकर रखा जाना चाहिए, जबकि वे सभी श्लोक, जो जातिवादी, जन्म-आधारित या अत्यधिक प्रतिबंधात्मक हैं, उन्हें ‘प्रक्षिप्त’ (मिलावटी) मानकर त्याग दिया जाना चाहिए, ताकि एक न्यायसंगत और समतामूलक समाज का निर्माण हो सके। मनुस्मृति का अध्ययन आज अतीत के गौरवशाली सिद्धांतों और उसकी विसंगतियों — दोनों को समझने के लिए आवश्यक है।








