
राज शेखर भट्ट
देहरादून | उत्तराखंड में सरकारी सूचना प्रणाली और पारदर्शिता के दावे लगातार सवालों के घेरे में हैं। सूचना एवं लोक संपर्क विभाग, जिसे राज्य में सरकारी संवाद, योजनाओं और विज्ञापनों के माध्यम से जनता तक संदेश पहुँचाने का प्रमुख स्तंभ माना जाता है, अब पत्रकारों, शोधकर्ताओं और जागरूक नागरिकों की नाराजगी का केंद्र बन गया है। हाल ही में आरटीआई के तहत दर्ज की गई कई अपीलों और शिकायतों से विभाग के कामकाज में व्यापक कमियों और सूचना छुपाने की प्रवृत्ति सामने आई है। सूत्रों के अनुसार, 01 सितंबर 2025 को एक प्रार्थी ने विभाग के लोक सूचना अधिकारी (PIO) को आरटीआई आवेदन प्रस्तुत किया। बिंदु संख्या 01 (पंडित दीन दयाल उपाध्याय कामधेनु गौशाला समिति) पर PIO ने लिखकर उत्तर दिया कि “वांछित सूचना धारित नहीं है।”
हालांकि, प्रार्थी के अनुसार, यह सूचना विभाग/कार्यालय में मौजूद होनी चाहिए थी। यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि लोक सूचना अधिकारी ने सूचना उपलब्ध कराना छोड़ दिया और विभागीय रिकॉर्ड को जनता और सूचना अधिकार अधिनियम के अनुरूप नहीं रखा। इसी क्रम में 03 अक्टूबर 2025 को एक और अपील दर्ज की गई, जिसमें प्रार्थी ने बताया कि 08 सितंबर को मांगी गई सूचना, विशेषकर मुख्यमंत्री सोशल मीडिया टीम से संबंधित जानकारी, लोक सूचना अधिकारी द्वारा “सूचना धारित नहीं है” के जवाब में टाल दी गई। अधिनियम की धारा 6(3) स्पष्ट रूप से कहती है कि यदि सूचना किसी अन्य विभाग/प्राधिकरण के पास है, तो PIO को पांच दिन के भीतर इसे संबंधित विभाग/PIO को स्थानांतरित करना अनिवार्य है। लेकिन यह प्रक्रिया पूरी नहीं की गई, जिससे विभाग की जिम्मेदारी और जवाबदेही पर सवाल उठ रहे हैं।
इतना ही नहीं, 29 अगस्त 2025 को प्रस्तुत आरटीआई आवेदन पर 08 अक्टूबर 2025 तक कोई उत्तर नहीं मिला। नियम के अनुसार 30 दिनों में उत्तर न मिलने की स्थिति में इसे ‘सूचना न देने का अस्वीकार’ (Deemed Refusal) माना जाता है। प्रार्थी ने इस आधार पर प्रथम अपील दर्ज कर विभाग और संबंधित PIO को निर्देश देने की मांग की। विभाग की प्राथमिकता और कामकाज की स्थिति और स्पष्ट तब हुई जब 02 सितंबर 2025 को आरटीआई आवेदन के तहत मांगी गई सूचना में लोक सूचना अधिकारी ने 20 सितंबर को शुल्क संबंधित पत्र भेजा और 25 सितंबर को भुगतान होने के बावजूद, 03 अक्टूबर को मिली प्रतिलिपियां “अपूर्ण” पाई गईं। विशेषकर हिमालयन इंस्टीट्यूट को दिये गए विज्ञापनों से संबंधित बिंदु संख्या 02 की जानकारी पूरी तरह से उपलब्ध नहीं कराई गई।
03 अक्टूबर 2025 को दर्ज तीसरी अपील में प्रार्थी ने 04 सितंबर को आवेदन प्रस्तुत किया। लोक सूचना अधिकारी ने बिंदु संख्या 02, 04 और 06 की जानकारी लिखित रूप में उपलब्ध कराई, जबकि शेष बिंदुओं की सूचना या तो आंशिक थी या 26 सितंबर को देर से मिली। 29 सितंबर तक प्राप्त आंशिक सूचना में बिंदु 01, 03 और 05 की जानकारी 46 पृष्ठों में थी, जबकि बिंदु 07 और 08 क्रमशः 23 और 17 पृष्ठों में। इसके बावजूद लोक सूचना अधिकारी ने स्पष्ट नहीं किया कि शेष सूचना क्यों उपलब्ध नहीं कराई गई — क्या यह बनाई नहीं गई, नष्ट हो गई, अन्य प्राधिकारी के पास है, या अभिलेखों में दर्ज ही नहीं की गई।
इन मामलों से स्पष्ट होता है कि सूचना एवं लोक संपर्क विभाग और उसके लोक सूचना अधिकारी जनता को उपलब्ध कराई जाने वाली सूचना में जानबूझकर देरी और आंशिकता का सहारा ले रहे हैं। विभाग के कामकाज में पारदर्शिता की कमी और सूचना छुपाने की प्रवृत्ति चिंता का विषय है। यह रवैया ना केवल अधिनियम के उद्देश्यों के खिलाफ है, बल्कि राज्य की पत्रकारिता और लोकतांत्रिक सूचना प्रणाली पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। विशेषज्ञों का कहना है कि सूचना विभाग में यह अनुचित प्रक्रिया केवल व्यक्तिगत लाभ, राजनीतिक दबाव और विभागीय प्राथमिकताओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जनता के अधिकारों और सरकारी जवाबदेही के लिए गंभीर खतरा बन गई है।
यदि विभाग और लोक सूचना अधिकारी आरटीआई अधिनियम के तहत मांगी गई सूचना को सही समय पर, पूरी और प्रमाणिक रूप में उपलब्ध नहीं कराते, तो राज्य में पारदर्शिता और सुशासन के दावे खोखले साबित होंगे। इस पूरे घटनाक्रम ने यह साफ कर दिया है कि उत्तराखंड में सूचना का वितरण केवल कुछ चुनिंदा अधिकारियों या पसंदीदा मीडिया तक सीमित रह गया है, जबकि आम नागरिक और स्वतंत्र पत्रकार सूचना से वंचित रह जाते हैं। पारदर्शिता की यह कमी धामी सरकार के दावों पर गंभीर सवाल खड़ा करती है और यह दिखाती है कि विभागीय रवैये में वास्तविक सुधार अभी बहुत दूर की बात है।