
शिवम यादव अंतापुरिया
“आतंक की आग में कितनी बार जलाया जाएगा भारत?” हर बार जब कोई बम फटता है, हर बार जब किसी माँ की कोख सुनी हो जाती है, और हर बार जब कोई तिरंगा लिपटा हुआ शव गांव लौटता है—हमारे नेता वही घिसी-पिटी भाषा बोलते हैं: “कड़ी निंदा करते हैं”, “शहीदों की कुर्बानी व्यर्थ नहीं जाएगी”, “जांच जारी है”। पर सवाल यह है—कब तक? कब तक जांचें चलती रहेंगी और कब तक मासूम लाशें गिनता रहेगा ये देश?
कहाँ है वो सुरक्षा तंत्र?
हमारे पास सैटेलाइट हैं, ड्रोन हैं, खुफिया एजेंसियाँ हैं, मोबाइल ट्रैकिंग सिस्टम हैं—तो फिर आतंकवादी देश की राजधानी तक पहुँच कैसे जाते हैं? वे पुलवामा जैसी घटनाएँ अंजाम कैसे देते हैं? क्या हमारी एजेंसियाँ सिर्फ वीआईपी सुरक्षा तक सीमित हो गई हैं? जब कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री जी का दौरा टाल दिया गया तो क्या कोई जानकारी मिल चुकी थी आतंकियों की अगर हां तो सुरक्षा क्यों नहीं बढ़ाई गई जब इतने पर्यटक वहां आ जा रहे हैं तो सुरक्षा के इंतजाम होने जरूरी हैं तो क्यों नहीं कोई क़दम उठाया गया। अगर दुश्मन को हम हर बार “सरप्राइज़” का मौका देते हैं, तो ये हमारी रणनीतिक विफलता नहीं तो और क्या है?
सत्ता से सवाल जरूरी हैं…
- जब *मुंबई* में गोलियाँ चलीं, तो नेताओं के बयान आए, पर कार्रवाई सड़कों पर नहीं दिखी।
- जब *उरी* और *पठानकोट* में हमला हुआ, तो टीवी पर सर्जिकल स्ट्राइक के वीडियो चले, पर हमलों की पुनरावृत्ति भी जारी रही।
- *पुलवामा* में 40 से ज्यादा जवान शहीद हुए—देश भर में आक्रोश था। *बालाकोट* का जवाब ज़रूरी था, लेकिन क्या यही स्थायी समाधान था?
- क्या सत्ता में बैठी सरकारें जनता की जान से ज़्यादा अपने वोट बैंक की राजनीति को प्राथमिकता देती हैं?
केवल सेना क्यों लड़े? सत्ता कब लड़ेगी?
- हमारी सेनाएँ हर बार बलिदान देती हैं, जवान शहीद होते हैं, और फिर वही राजनीति शुरू हो जाती है—”वो सरकार होती तो…”, “हम होते तो…”, “ये राष्ट्रवाद है…”।
- पर सच यह है कि आतंकवाद के खिलाफ एक ठोस, दीर्घकालिक नीति आज तक नहीं बन पाई। क्यों?
- *देश की जनता क्या केवल श्रद्धांजलि देने के लिए है?
- हर बार हम मोमबत्तियाँ जलाते हैं, ट्रेंड चलाते हैं, पोस्टर बनाते हैं। फिर भूल जाते हैं, जैसे हम भूल गए पुलवामा को, संसद पर हुए हमले को, दंतेवाड़ा को।
- क्या हम इतने अभ्यस्त हो गए हैं आतंक से, कि वो अब खबर से ज्यादा ‘नॉर्मल’ बन चुका है?
कुछ प्रश्न है जिन पर गौर करने की जरूरत है…
- क्या हमारी सरकारें (चाहे जो भी पार्टी हो) आतंकी हमलों को एक “राजनीतिक अवसर” की तरह देखती हैं?
- क्या इस देश में सुरक्षा नीति भी चुनावी चश्मे से देखी जाती है?
- क्या हमें जवाबदेही की जरूरत नहीं?
समापन: अब बहुत हो चुका!
अब हम ‘शोक’ नहीं, ‘जवाब’ चाहते हैं। अब हमें भाषण नहीं, रणनीति चाहिए।
अब हम श्रद्धांजलि नहीं, सुरक्षा चाहते हैं। अब हम सहेंगे नहीं, सवाल करेंगे।
देश सह चुका है बहुत। अब हर नागरिक का एक ही प्रश्न है—
“कितने और हमले सहेगा देश?”