
सत्येन्द्र कुमार पाठक
सनातन धर्म के शाक्त संप्रदाय में आदिशक्ति देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा का विधान है, और इनमें देवी शैलपुत्री प्रथम स्वरूप हैं। यह नाम “शैल” यानी पर्वत और “पुत्री” यानी बेटी से बना है, जो उनके हिमालय पर्वत की पुत्री होने का प्रतीक है। मां शैलपुत्री का वर्णन न केवल पुराणों में, बल्कि ऋग्वेद और उपनिषदों जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। उनकी कहानी धैर्य, त्याग, शक्ति और पुनर्जन्म की गहन और प्रेरक गाथा है, जो हमें जीवन के महत्वपूर्ण मूल्यों का बोध कराती है।
नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा के साथ ही नौ दिनों का यह पावन पर्व आरंभ होता है। योग साधक इस दिन अपने ध्यान को मूलाधार चक्र पर केंद्रित करते हैं, जो आध्यात्मिक यात्रा की नींव माना जाता है। मूलाधार चक्र स्थिरता, सुरक्षा और अस्तित्व की भावना से जुड़ा है, और मां शैलपुत्री की उपासना के साथ इसे जाग्रत करना व्यक्ति को जीवन में संतुलन और धैर्य प्रदान करता है। उनका स्वरूप भी इसी स्थिरता और शक्ति का प्रतीक है: वह वृषभ (बैल) पर सवार हैं, जो धर्म और धैर्य का प्रतीक है। उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल है, जो कर्म, ज्ञान और भक्ति का त्रिशक्ति रूप है, और बाएं हाथ में कमल का फूल है, जो पवित्रता और आध्यात्मिक विकास का प्रतीक है।
मां शैलपुत्री की कथा उनके पिछले जन्म से जुड़ी हुई है, जब वह प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थीं। सती का विवाह भगवान शिव से हुआ था, लेकिन दक्ष इस विवाह से प्रसन्न नहीं थे। एक बार दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया और सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन जानबूझकर भगवान शिव को निमंत्रण नहीं दिया। सती ने इस यज्ञ में जाने का निश्चय किया। वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि कोई भी उनसे स्नेहपूर्वक बात नहीं कर रहा है। उनके पिता ने स्वयं भगवान शिव का अपमान किया। इस अपमान को देखकर सती का हृदय क्रोध, ग्लानि और पीड़ा से भर गया। उन्होंने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर का त्याग किया। इस दुखद घटना से क्रोधित होकर भगवान शिव ने अपने गणों को भेजकर यज्ञ को नष्ट करा दिया।
सती ने अपने जीवन का त्याग इसलिए किया ताकि वह अगले जन्म में भगवान शिव की पत्नी बनने के लिए एक पवित्र और शक्तिशाली रूप में जन्म ले सकें। इसी त्याग और पुनर्जन्म की प्रक्रिया के बाद उन्होंने हिमालयराज हिमवान और उनकी पत्नी मैना देवी की पुत्री के रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री कहलाईं। उनका यह पुनर्जन्म हमें सिखाता है कि प्रेम और भक्ति की राह में आने वाली बाधाएं हमें और भी मजबूत बनाती हैं। पुनर्जन्म के बाद मां शैलपुत्री को पार्वती, हैमवती और गिरिजा जैसे नामों से भी जाना गया। उपनिषदों में उनका हैमवती स्वरूप विशेष रूप से वर्णित है। उनकी शादी भगवान शिव से हुई और वे उनकी जीवनसंगिनी बनीं।
भारत के विभिन्न हिस्सों में मां शैलपुत्री को समर्पित कई प्रसिद्ध मंदिर हैं:
- वाराणसी, उत्तर प्रदेश: अलईपुरा के वरुणा नदी तट पर प्राचीन शैलपुत्री मंदिर।
- रतनपुर, छत्तीसगढ़: महामाया मंदिर परिसर में छोटा लेकिन महत्वपूर्ण मंदिर।
- जम्मू और कश्मीर: बारामूला की गुफा में मंदिर, हिमालय की गोद में उनकी उपस्थिति का प्रतीक।
- गुड़गांव और दिल्ली: झंडेवालान मंदिर सहित कई पूजा स्थल।
- हिमाचल प्रदेश: नैना देवी मंदिर, एक महत्वपूर्ण शक्ति पीठ।
भक्तगण इन मंदिरों में जाकर मां शैलपुत्री से धैर्य, साहस और शक्ति की कामना करते हैं। वे मानते हैं कि मां उन्हें जीवन की बाधाओं से लड़ने की शक्ति और स्थिरता प्रदान करती हैं। शैलपुत्री का वर्णन देवी भागवत, मार्कण्डेय पुराण और ऋग्वेद में मिलता है। उन्हें भवानी, हेमवती, गिरिजा और पार्वती जैसे नामों से भी जाना जाता है। यह कथा केवल एक देवी की कहानी नहीं है, बल्कि यह जीवन के संघर्ष, त्याग और पुनरुत्थान का शक्तिशाली रूपक है।
पुराणों के अनुसार, प्रजापति दक्ष की पुत्री स्वधा का विवाह पितृदेव पितरेश्वर से हुआ था। उनकी पुत्री मैना का विवाह हिमालय से हुआ, और इसी परिवार में मां शैलपुत्री का जन्म हुआ। मां शैलपुत्री की कहानी त्याग, प्रेम, धैर्य और शक्ति का अनूठा संगम है। वे न केवल एक देवी हैं, बल्कि प्रेरणा भी हैं, जो जीवन के हर मोड़ पर अडिग रहने का साहस देती हैं।