
आभूषणों से ज़्यादा मन का सौंदर्य जरूरी; मन की गरीबी सबसे बड़ी दरिद्रता है…
धनतेरस का अर्थ केवल ‘धन’ नहीं बल्कि ‘ध्यान’ भी है—ध्यान उस पर जो हमारे जीवन को सार्थक बनाता है। यह त्योहार हमें सोचने पर मजबूर करता है कि समृद्धि का असली अर्थ क्या है। अगर घर में प्रेम है, परिवार में एकता है, मन में शांति है, और समाज में करुणा है—तो यही सबसे बड़ा धन है। इस धनतेरस पर केवल चाँदी की चमक नहीं, अपने मन की उजास बढ़ाइए। अपने भीतर के अंधकार को पहचानिए और प्रेम, संयम और सेवा का दीप जलाइए। यही असली पूजा है—जहाँ लक्ष्मी केवल तिजोरी में नहीं, व्यवहार में भी बसती हैं।
– डॉ. सत्यवान सौरभ
धनतेरस का नाम लेते ही आंखों के सामने दीपों की उजास, सोने-चांदी की झिलमिलाहट, बाज़ारों का शोर और पूजा की तैयारियों में जुटे घर-घर के दृश्य उभर आते हैं। यह दिन न केवल खरीदारी का त्योहार है, बल्कि भारतीय संस्कृति के गहरे दर्शन का प्रतीक भी है। यह वह दिन है जब लोग मानते हैं कि लक्ष्मी माता घर आएंगी, समृद्धि का आशीर्वाद देंगी और दुर्भाग्य के अंधकार को मिटा देंगी। परंतु अगर हम इस पर्व के पीछे के दर्शन को देखें, तो पाएंगे कि धनतेरस का अर्थ केवल सोना-चांदी खरीदना नहीं, बल्कि ‘धन’ की सही परिभाषा को समझना है। ‘धन’ शब्द संस्कृत के ‘धना’ से बना है, जिसका अर्थ केवल संपत्ति या पैसा नहीं, बल्कि समृद्धि, सुख और संतोष का संगम है। प्राचीन ग्रंथों में धनतेरस को ‘धनत्रयोदशी’ कहा गया—अर्थात धन और स्वास्थ्य दोनों की कामना का दिन। इसी दिन समुद्र मंथन से धनवंतरि देवता अमृत कलश लेकर प्रकट हुए, जिन्होंने मानवता को स्वास्थ्य का वरदान दिया।
आज के समय में धनतेरस का रूप बदल गया है। पहले यह दिन दीप जलाने, घर साफ़ करने और देवी-देवताओं की पूजा का होता था, अब यह शॉपिंग मॉल और ऑनलाइन सेल का प्रतीक बन गया है। लोग महंगी वस्तुएँ खरीदने की होड़ में लग जाते हैं। लेकिन क्या यही असली ‘धन’ है? असली समृद्धि तो उस मन में है जो संतोष जानता है, उस घर में है जहाँ प्रेम की दीवारें मजबूत हैं, और उस समाज में है जहाँ सभी के पास रोटी, कपड़ा और सम्मान हो। धनतेरस हमें यह भी सिखाता है कि धन का उपयोग कैसा हो। जब धन भगवान धनवंतरि से जुड़ा है, तो इसका अर्थ है कि धन स्वास्थ्य और जीवन की रक्षा के लिए होना चाहिए, न कि दिखावे और व्यर्थ विलासिता के लिए। असली पूजा तब होती है जब जीवन में संतुलन और संयम को जगह दी जाए।
एक समय था जब लोग मिट्टी के दीप, तांबे या पीतल के बर्तन खरीदते थे। यह परंपरा प्रतीकात्मक और वैज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण थी। मिट्टी के दीप अंधकार मिटाने का प्रतीक हैं, और धातु के बर्तन स्वास्थ्य व सकारात्मक ऊर्जा का। अब इनकी जगह चमकदार लाइट्स और प्लास्टिक के सजावटी सामान ने ले ली है। पहले घरों में ‘शुभ-लाभ’ लिखा होता था, अब ‘डिस्काउंट’ और ‘कैशबैक’ के बोर्ड। यह बदलाव केवल बाहरी नहीं, भीतर के मूल्यबोध में भी आया है। धनतेरस का गहरा संदेश है—‘धन’ और ‘धर्म’ का संतुलन। अगर धन अधर्म के मार्ग से अर्जित किया गया है, तो वह सुख नहीं दे सकता। महाभारत में कहा गया—“धनं धर्मेण सञ्चयेत्” यानी धन को धर्म के मार्ग से अर्जित करो। जब हम दीप जलाते हैं, तो वह केवल बाहर का अंधकार नहीं मिटाता, बल्कि भीतर के लालच, ईर्ष्या और मोह के अंधकार को भी दूर करता है।
इस पर्व का आयुर्वेदिक और वैज्ञानिक पक्ष भी महत्वपूर्ण है। कार्तिक मास की त्रयोदशी के दिन मौसम बदलता है, सर्दी की शुरुआत होती है, और रोगों की संभावना बढ़ जाती है। धनवंतरि की पूजा स्वास्थ्य का ध्यान रखने का प्रतीक है। धनतेरस केवल धन प्राप्ति का नहीं, बल्कि दीर्घायु, स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन का दिन है। पुरखों की जीवनशैली बताती है कि त्योहार धार्मिक कर्मकांड के साथ-साथ सामाजिक समरसता और पर्यावरण संतुलन का अवसर थे। घर की सफाई केवल लक्ष्मी के स्वागत के लिए नहीं, बल्कि स्वच्छता का प्रतीक थी। दीप जलाना अंधकार हटाने और वातावरण पवित्र करने का उपाय था। धनतेरस समाज में समानता का प्रतीक भी रहा। पुराने समय में अमीर-गरीब सभी दीप जलाते थे। किसी के पास सोना-चांदी न हो तो मिट्टी का दीपक जलाकर श्रद्धा प्रकट करता था। आज यह भाव कम हो गया है। मॉलों की चकाचौंध में झुग्गियों की रातें दब जाती हैं। असली लक्ष्मी वही है जो सबके घर में आती है, भूखों और जरूरतमंदों की मदद के रूप में।
धनतेरस का वास्तविक संदेश यही है कि हमें धन का सही उपयोग करना सीखना चाहिए। यदि हम धन से किसी गरीब की मदद करें, बीमार के इलाज में सहयोग दें, बच्चों की पढ़ाई में योगदान दें—तो वही असली धनतेरस है। लक्ष्मी तब स्थायी होती हैं जब उनका उपयोग दूसरों की भलाई में होता है। आज डिजिटल भुगतान, ऑनलाइन शॉपिंग और कृत्रिम रोशनी के बीच यह जरूरी है कि हम पर्व की आत्मा को पहचानें। यह अवसर अपने मन का ‘क्लीनिंग डे’ बनाने का भी है। भीतर के लोभ, ईर्ष्या, स्वार्थ और दिखावे की धूल झाड़कर करुणा, ईमानदारी और प्रेम के दीप जलाएं—तभी सच्चा धनतेरस होगा। धनतेरस केवल एक दिन नहीं, बल्कि जीवन को संतुलित, स्वास्थ्यपूर्ण और अर्थपूर्ण बनाने का दृष्टिकोण है। धन का मूल्य उसकी मात्रा में नहीं, बल्कि प्रयोग में है। यदि धन साधन बने, साध्य नहीं, तो जीवन में सौंदर्य और संतोष लाता है।
सबसे बड़ा ‘धन’ यह है कि हम मानसिक शांति बचा सकें। परिवार के साथ मुस्कुरा सकें, अपनों को समय दे सकें, बुजुर्गों के चरण छूकर आशीर्वाद ले सकें। त्योहारों की असली चमक सोने-चांदी में नहीं, मन की निर्मलता में है। दीपों की रोशनी बाहर तभी फैलेगी जब भीतर के दीप प्रज्वलित हों। इस धनतेरस पर अगर कुछ खरीदना ही चाहें, तो संयम, करुणा और संतोष खरीदिए। यह अमूल्य वस्तुएँ कभी पुरानी नहीं पड़तीं, चोरी नहीं होतीं, और जीवनभर समृद्धि देती हैं। धनतेरस हमें याद दिलाता है कि समृद्धि केवल धनवान बनने में नहीं, बल्कि मनवान बनने में है। जब हम अपने कर्मों से दूसरों के जीवन में प्रकाश फैलाते हैं, तभी सच्चे अर्थों में ‘धनतेरस’ होती है। दीप जलाइए, और किसी के जीवन में भी उम्मीद का दीप जलाइए। यही इस पर्व का सबसे सुंदर संदेश है।
– डॉ. सत्यवान सौरभ
कवि, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट, 333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी), भिवानी, हरियाणा