
अनिल कुमार कक्कड़
देहरादून। उत्तराखंड का सूचना एवं लोक संपर्क विभाग एक बार फिर सवालों के घेरे में है। विभाग पर सूचना छिपाने, मनमाने जवाब देने और चुनिंदा मीडिया संस्थानों को भारी-भरकम विज्ञापन देने के आरोप लगातार गहराते जा रहे हैं। सूत्रों के अनुसार, सितंबर 2022 में बंशीधर तिवारी ने सूचना महानिदेशक (DG Information) का पद संभाला था। लेकिन विडंबना यह है कि सूचना अधिकार अधिनियम (RTI Act) के तहत जितनी भी प्रथम अपीलें दर्ज की गई हैं, वे सभी उन्हीं के कार्यकाल के दौरान की हैं।
गलत जवाब या सूचना न होना – सूत्र बताते हैं कि वर्ष 2022 में ‘मथुरा पंडित दीनदयाल कामधेनु गौशाला समिति’ और ‘हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ लर्निंग एंड लाइवलीहुड’ को विभाग के द्वारा विज्ञापन दिये गये हैं। वर्ष 2025 में दोनों ही मामलों में लोक सूचना अधिकारी ने या तो गलत जवाब दिया, या यह कहकर सूचना देने से इनकार कर दिया कि “वांछित सूचना उपलब्ध नहीं है।” अब बड़ा सवाल यह है कि क्या सचमुच विभाग के पास ये सूचनाएं उपलब्ध नहीं हैं? या फिर इन्हें जानबूझकर सार्वजनिक करने से रोका जा रहा है? या सूचनाओं को ऊपर से रोकने के निर्देश दिए जाते हैं ताकि विभाग या सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल न उठें।
विभाग पर बढ़ता अविश्वास – पत्रकारों और स्वतंत्र मीडिया संस्थानों में यह चर्चा तेज है कि सूचना विभाग अब पारदर्शिता के बजाय “प्रचार” का माध्यम बनता जा रहा है। कई वरिष्ठ पत्रकारों ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि “विभाग में अब सूचना देना अपवाद और प्रचार करना नियम बन चुका है।” हाल ही में बारामासा और न्यूज़ लॉन्ड्री जैसे स्वतंत्र प्लेटफॉर्मों ने भी इस मुद्दे को उजागर किया था कि विभाग किस तरह विज्ञापनों के जरिए मीडिया को नियंत्रित कर रहा है।
गोदी मीडिया को भारी विज्ञापन, आलोचकों को दरकिनार- जानकारों के अनुसार, विभाग की नीति अब स्पष्ट रूप से “गोदी मीडिया” को प्रोत्साहित करने की हो चली है। जिन मीडिया हाउसों या पत्रकारों ने सरकार या विभाग की आलोचना की, उनके आवेदन या तो गायब कर दिए गए या तकनीकी आपत्तियों के नाम पर खारिज कर दिए गए। वहीं जो मीडिया संस्थान सरकार के गुणगान में लगे हैं, उन्हें लाखों रुपये के विज्ञापन जारी किए गए — 5 लाख, 10 लाख, 15 लाख, यहां तक कि 20 लाख तक की राशि तक के विज्ञापन निजी तौर पर बांटे गए। कई पत्रकारों ने आरोप लगाया है कि “विज्ञापन फाइलें पहले से तय नामों के हिसाब से आगे बढ़ाई जाती हैं।”
आवेदन गायब और फाइलें दबाई जा रही हैं- कई आरटीआई आवेदकों का कहना है कि उनके आवेदन रहस्यमय तरीके से “गायब” हो जाते हैं या अधूरे जवाबों के साथ बंद कर दिए जाते हैं। एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया, “निजी दर पर दिए गए आवेदन को विभागीय दर में बदल दिया गया, जिससे लाभ किसी खास मीडिया संस्थान को पहुंचे।” यह आरोप विभाग के भीतर चल रही “फेवरिटिज्म और अपारदर्शिता” की जड़ को उजागर करता है। अब जब ये सारे मामले डीजी बंशीधर तिवारी के कार्यकाल के दौरान ही सामने आए हैं, तो सवाल उठना स्वाभाविक है — क्या सूचना को रोके जाने के पीछे विभागीय अधिकारियों की लापरवाही है या शीर्ष स्तर पर लिया गया फैसला? कुछ पत्रकारों का यह भी कहना है कि “सूचना विभाग अब सूचना देने से अधिक, सूचना छिपाने में माहिर हो गया है।”
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सूचना आयोग से न्याय की उम्मीद – इन मामलों में अब उम्मीद सिर्फ सूचना आयोग से ही है। लेकिन यह भी देखने वाली बात होगी कि आयोग कितनी पारदर्शिता के साथ इन मामलों की सुनवाई करता है। यदि अपीलों के जवाब अधूरे या भ्रामक आए, तो यह केवल एक विभाग नहीं बल्कि पूरे शासन-प्रशासन की पारदर्शिता पर गंभीर प्रश्न खड़ा करेगा। सितंबर 2022 में डीजी तिवारी ने पदभार संभाला था और अक्टूबर 2025 तक कई गंभीर आरटीआई अपीलें लंबित हैं। इसका सीधा असर मुख्यमंत्री धामी की “पारदर्शी शासन” की छवि पर भी पड़ रहा है।
सवाल यह भी है कि जब स्वयं मुख्यमंत्री पारदर्शिता और सुशासन की बात करते हैं, तो उनके अधीन विभागों में यह अपारदर्शिता क्यों? सूचना विभाग को चाहिए कि वह अपने जवाबों और प्रक्रियाओं को सार्वजनिक करे। अन्यथा यह धारणा और गहराती जाएगी कि विभाग अब सूचना देने का नहीं, सूचना छिपाने का अड्डा बन गया है।
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