
साहित्यकारों के पास डाक में इतनी सारी पत्र पत्रिकाएं आती थी कि वे उन्हें पढने के बाद बच्चों के पढने के लिए किसी स्कूल के वाचनालय में या फिर अपने मौहल्ले के वाचनालय या पुस्तकालय में भेंट दे दिया करते थे ताकि जहां बच्चों को निशुल्क पत्र पत्रिकाएं पढने को मिलती थी. #सुनील कुमार माथुर, जोधपुर (राजस्थान)
[/box]श्रेष्ठ चिन्तन से ही श्रेष्ठ लेखन सम्भव है। वहीं दूसरी ओर बाल साहित्य लेखन हेतु रचनाकार को पहलें स्वयं बच्चा बनना पडता हैं। साहित्य सृजन कोई आसान कार्य नहीं हैं। इसके लिए गहन अध्ययन, चिंतन मनन करना पडता हैं। शब्दों की दुनियां में अनेक गोते लगाकर मोती स्वरूप शब्दों की माला पिरोनी पडती हैं तब कहीं जाकर एक श्रेष्ठ आलेख तैयार हो पाता हैं।
लेकिन वर्तमान समय में साहित्यकारों की बाढ सी आ गई है। हर कोई कापी पेस्ट कर अपने नाम से रचनाएं प्रकाशित करवा रहे हैं। कोरोना काल क्या आया पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन ठप सा हो गया है और आज पत्र पत्रिकाएं आनलाईन हो गई है । इससे छपास के रोगी पैदा हो गये है। वही दूसरी ओर आज साहित्यकार भी परेशान हैं। चूंकि उनकी रचनाओं को या तो प्रकाशित नहीं किया जाता हैं या फिर प्रकाशित कर भी दिया जाता है तो नाम हटा दिया जाता है।
इससे जहां एक ओर साहित्यकारों का मजाक उड़ाया जा रहा हैं, वहीं दूसरी ओर पत्र पत्रिकाओं का स्तर गिरता जा रहा हैं और कापी पेस्ट छपास के रोगी बढते जा रहे हैं। मोबाइल क्या आया बच्चों को पत्र पत्रिकाओं से दूर कर दिया है। नतीजन आज बाजार में छपी हुई पत्र पत्रिकाएं कम ही आती है। लेखक का पारिश्रमिक बंद हो गया। लेखकीय प्रति बंद हो गई। आनलाईन रचनाओं के प्रकाशन के बावजूद रचनाकारों से वार्षिक शुल्क की मांग सम्पादक मंडल द्वारा की जा रही हैं। यह कैसी विडम्बना है।
आज साहित्यकार लेखन के अपने कर्म को छोडना चाहता है, लेकिन कलम साहित्यकार को नहीं छोड रही हैं। जब तक सम्पादकीय विभाग में साहित्य प्रेमी सम्पादक मंडल का अभाव रहेगा, तब तक साहित्यकार की कलम यूं ही तड़पती रहेगी। एक वक्त वह था जब साहित्यकारों को पत्र पत्रिकाओं के कार्यालय में बुलाकर उनसे तीज- त्योहार, पर्व, जयन्ती व रविवारीय परिशिष्ट के लिए कहानी, कविताएं, सवाल – जवाब, व्यंग्य लिखवाया जाता था।
साहित्यकारों के पास डाक में इतनी सारी पत्र पत्रिकाएं आती थी कि वे उन्हें पढने के बाद बच्चों के पढने के लिए किसी स्कूल के वाचनालय में या फिर अपने मौहल्ले के वाचनालय या पुस्तकालय में भेंट दे दिया करते थे ताकि जहां बच्चों को निशुल्क पत्र पत्रिकाएं पढने को मिलती थी वही पत्र पत्रिकाओं का प्रचार-प्रसार भी हो जाता था मगर आनलाईन पत्र पत्रिकाओं ने सब कुछ चौपट कर दिया।
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