
(राज शेखर भट्ट)
देहरादून। उत्तराखण्ड में सूचना एवं लोक संपर्क विभाग को हमेशा से ही सरकारी संवाद का महत्वपूर्ण अंग माना जाता रहा है। यह विभाग सीधे मुख्यमंत्री के अधीन कार्य करता है और राज्य की खबरों, विज्ञापनों और प्रेस रिलीज़ के माध्यम से सरकारी संदेश जनता तक पहुँचाने की जिम्मेदारी निभाता है। लेकिन वर्तमान में इस विभाग के कामकाज और उसके निर्णयों को लेकर पत्रकारों और मीडिया विशेषज्ञों में भारी असंतोष व्याप्त है। सूत्रों के अनुसार, सूचना एवं लोक संपर्क विभाग ने अपने कुछ “खास” पत्रकारों और मीडिया हाउस को बड़े पैमाने पर विज्ञापन और सरकारी सहयोग दिया है, जबकि अन्य पत्रकारों और अखबारों के प्रति ठेंगा और सौतेला रवैया अपनाया जा रहा है। यह स्थिति न केवल पारदर्शिता के सिद्धांतों के खिलाफ है, बल्कि पत्रकारों में गहरी नाराजगी और असंतोष भी पैदा कर रही है।
पत्रकारों का कहना है कि सूचना अधिकार (RTI) के तहत भी उन्हें कई बार आवश्यक जानकारी नहीं मिल पाती और विभाग कई मामलों में सूचना को छुपाने या विलंबित करने की रणनीति अपनाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या विभाग केवल अपनी पसंद के मीडिया हाउस और पत्रकारों को फायदा पहुँचाने के लिए काम कर रहा है, या फिर यह प्रक्रिया पूरी तरह से राजनीतिक हस्तक्षेप के अधीन है। विशेषज्ञों का कहना है कि सूचना एवं लोक संपर्क विभाग की यह नीति न केवल छोटे और मध्यम पत्रकारों के करियर को प्रभावित कर रही है, बल्कि राज्य में मीडिया स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर भी गंभीर असर डाल रही है। कई पत्रकार तो इस असंतोष को इतनी हद तक महसूस कर चुके हैं कि उन्हें अपने पेशेवर दायित्व निभाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
राजनीतिक हलकों में भी यह चर्चा जोरों पर है कि क्या मुख्यमंत्री को इस पक्षपात की जानकारी है। यदि उन्हें पता है, तो यह गंभीर नैतिक और प्रशासनिक सवाल खड़ा करता है। वहीं, यदि मुख्यमंत्री अनजान हैं, तो यह विभाग की स्वेच्छा और गैर-जवाबदेही को उजागर करता है। मीडिया और विश्लेषकों का मानना है कि यह मामला केवल व्यक्तिगत लाभ या रेवड़ी बाँटने तक सीमित नहीं है। यह राजनीतिक प्रभाव और सूचना का नियंत्रण दिखाने का भी तरीका बन गया है। इसका परिणाम यह है कि सरकारी विज्ञापन और जानकारी केवल कुछ चुनिंदा मीडिया हाउस तक सीमित रह जाती है, जबकि बाकी पत्रकारों को अनदेखा किया जाता है।
अभी यह देखना बाकी है कि सूचना एवं लोक संपर्क विभाग और सरकार इस आरोप पर किस तरह की प्रतिक्रिया देंगे। क्या वे पारदर्शिता सुनिश्चित करेंगे और छोटे-मध्यम पत्रकारों के हक की रक्षा करेंगे, या फिर यह मामला भी धीरे-धीरे दबा दिया जाएगा। उत्तराखण्ड के पत्रकार और मीडिया विशेषज्ञ इस पर निगाह बनाए हुए हैं, क्योंकि विभाग के इस रवैये का असर सीधे राज्य की पत्रकारिता और लोकतांत्रिक सूचना प्रणाली पर पड़ता है।