
(राज शेखर भट्ट)
देहरादून | सूचना अधिकार अधिनियम, 2005 के तहत किए गए एक आवेदन में प्रार्थी द्वारा वर्ष 2022 और 2023 में विभिन्न संस्थाओं को दिये गए विज्ञापनों से संबंधित जानकारी मांगी गई थी, लेकिन लोक सूचना अधिकारी ने इसमें से एक बिंदु को “वांछित सूचना धारित नहीं है” लिखकर खारिज कर दिया। यह निर्णय विभाग और आवेदनकर्ता के बीच विवाद का केंद्र बन गया है। प्रार्थी ने 01.09.2025 को आवेदन दायर कर निम्न पांच बिंदुओं पर जानकारी मांगी थी:
🎉 सूचना अधिकार अधिनियम- 2005 के तहत मांगी गयी सूचना… 🎉
- वर्ष 2022 में ‘‘मथुरा दीन दयाल कामधेनु गौशाला समिति’’ को दिये गए विज्ञापनों से संबंधित आरओ, ऑर्डर, नियम और भुगतान की छायाप्रति।
- वर्ष 2022 में हिमालयन इंस्टीट्यूट को दिये गए विज्ञापनों से संबंधित आरओ, ऑर्डर, नियम और भुगतान की छायाप्रति।
- वर्ष 2022 में ‘‘लखनऊ दीन दयाल उपाध्याय सेवा प्रतिष्ठान’’ को दिये गए विज्ञापनों से संबंधित आरओ, ऑर्डर, नियम और भुगतान की छायाप्रति।
- वर्ष 2022 में ‘‘नई दिल्ली वॉयस ऑफ मीडिया, स्मारिका’’ को दिये गए विज्ञापनों से संबंधित आरओ, ऑर्डर, नियम और भुगतान की छायाप्रति।
- वर्ष 2023 में नैनीताल कृष्य फाउंडेशन को दिये गए विज्ञापनों से संबंधित आरओ, ऑर्डर, नियम और भुगतान की छायाप्रति।
उपरोक्त बिंदुओं में से लोक सूचना अधिकारी जी के द्वारा प्रथम बिंदु को ‘‘वांछित सूचना धारित नहीं है’’ कहकर समाप्त करने की कोशिश की है। लेकिन प्रार्थी के अनुसार, विभाग द्वारा दिया गया उत्तर गलत और भ्रामक है। इस जवाब से असंतुष्ट होकर प्रार्थी ने प्रथम अपील दाखिल की है। प्रथम अपील की प्रक्रिया में प्रार्थी अपने आवेदन और लोक सूचना अधिकारी के उत्तर के खिलाफ उच्च अधिकारी से समीक्षा की मांग करता है। अंतिम निर्णय केवल अपील अधिकारी द्वारा समीक्षा के बाद ही लिया जाएगा।
विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के मामलों में अक्सर सूचना का संरक्षण और विभागीय जवाबदेही के बीच संतुलन बनाने की चुनौती रहती है। यदि प्रथम अपील में भी प्रार्थी की मांग को अस्वीकार किया गया तो वह द्वितीय अपील के लिए राज्य सूचना आयोग तक जा सकता है। सूचना अधिकार अधिनियम का उद्देश्य ही सरकारी जानकारी को जनता के लिए पारदर्शी बनाना है। इस मामले में भी यह स्पष्ट हो गया है कि विभाग और सूचना के अधिकार के बीच संतुलन बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है।
प्रार्थी का कहना है कि यदि सूचना को सार्वजनिक किया जाता, तो यह यह दर्शाता कि विभाग ने विज्ञापन संबंधी कार्रवाई पूरी पारदर्शिता और नियमों के अनुरूप की थी। इस विवाद ने एक बार फिर से सूचना अधिकार अधिनियम की उपयोगिता और उसकी सीमाओं पर सवाल खड़ा किया है। उत्तराखंड में ऐसे कई मामलों में नागरिक विभागीय जवाबदेही की मांग करते हैं, लेकिन सरकारी जवाब अक्सर अधूरी या असंतोषजनक होती है।