
सुनील कुमार माथुर
सदस्य अणुव्रत लेखक मंच
33 वर्धमान नगर, शोभावतों की ढाणी खेमे का कुंआ, पालरोड, जोधपुर, राजस्थान
आजादी के वक्त हमारे पूर्वजों ने कल्पना की थी कि आजाद भारत के लोग एक दूसरे की मदद करेंगे और देश में अमन-चैन कायम होगा तथा आपसी प्रेम, स्नेह, मिलनसारिता, वात्सल्य की भावना जागृत होगी। लोग सेवा भाव की भावना से कार्य करेंगे। लड़ाई-झगड़े, राग-द्वेष, हिंसा, बेईमानी और भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों से मुक्ति मिलेगी और नये भारत का नव निर्माण होगा। लोग सभी तरह से खुशहाली के साथ जीवन व्यतीत करेंगे।
आजादी दिलाने वालों की लम्बी चौड़ी सूची है, फिर भी हम पाठ्यक्रमों में महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, गणेश शंकर विद्यार्थी, सुभाष चन्द्र बोस, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, भगत सिंह, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, सरोजिनी नायडू, चन्द्रशेखर आजाद, गोपालकृष्ण गोखले, मंगल पांडे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, राममनोहर लोहिया, मदन मोहन मालवीय, अब्दुल कलाम आजाद, विजयलक्ष्मी पंडित जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों का इतिहास पढ़ा करते थे, जो आज पाठ्यक्रमों से नदारद हैं। हम कैसे आजाद देश के नागरिक हैं जो अपने ही स्वतंत्रता सेनानियों को भूल रहे हैं। यह कैसी विडम्बना है।
आजादी दिलाने वाले अमर शहीदों के इरादे नेक थे। उस वक्त हर वस्तुओं के दाम न्यूनतम दर पर थे। कहते हैं कि देश में घी, दूध, दही की नदियां बहती थीं। आजादी के दीवानों की जीवनियां पाठ्यक्रम का हिस्सा थीं। हर देशवासी के मुख पर आजादी दिलाने वाले अमर शहीदों के नाम थे। लेकिन देश की गंदी राजनीति के चलते धीरे-धीरे वे सभी पाठ पाठ्यक्रमों से हटा दिए गये। नतीजन आज हम इस गंदी राजनीति के कारण उन्हें भूल बैठे। आज उनके नाम तक कोई नहीं जानता। मात्र औपचारिकता निभाने की खातिर चंद नेताओं के नाम जबरन याद रखे जा रहे हैं, वरना अब तक उन्हें भी भूल गए होते।
आज हम अपने बड़े बुजुर्गों के नाम तक याद नहीं रखते हैं, चूंकि आज पैसा ही माई-बाप हो गया है तो उन आजादी के दीवानों को कौन याद करता है। जो एक शर्मनाक बात है। सरकार को चाहिए कि वह पुनः आजादी दिलाने वाले अमर शहीदों के पाठ पाठ्यक्रमों में शामिल करे ताकि जन-जन में देशभक्ति की भावना जागृत हो सके। आजादी के दो-ढाई दशक तक तो देश में अपार खुशहाली देखने को मिली। लेकिन फिर धीरे-धीरे बेइमानी, भ्रष्टाचार, हिंसा, राग-द्वेष, चोरी-चकारी, लूटपाट, खून-खराबे का दौर आरम्भ हो गया। “जिसकी लाठी उसकी भैंस” का प्रचलन चल पड़ा। अपराधियों के सामने हमारी सुरक्षा व्यवस्था लाचार साबित होने लगी।
इंसान जो कोर्ट-कचहरी, अस्पतालों व पुलिस थानों से दूर था, वही आज इनकी शरण ले रहा है। पिछले 3-4 दशकों से तो देश के हालात इतने खराब हो गये हैं कि लोग पुलिस थानों व न्यायालयों की शरण लेने से भी कतरा रहे हैं। न्यायालय के द्वार खटखटाना हर किसी के बूते की बात नहीं है, चूंकि न्याय पाने में ही वर्षों लग जाते हैं। धन-दौलत वाले येन-केन प्रकारेण मामले को लटकाए रखना चाहते हैं, जिससे अनेक बार पीड़ित पक्षकार न्याय मिलने से पहले ही परलोक सिधार जाता है। न्याय सभी के लिए ऐसा हो कि पीड़ित पक्षकार को दो-चार माह में ही न्याय मिल सके।
आज अपराधियों के हौंसले इतने बुलंद हो गये कि उन्हें कानून का कोई डर नहीं है। वे पीड़ित पक्षकार पर ऐसे काबिज होते हैं कि वे अपने प्राणों की रक्षा की खातिर मौन रहना ही बेहतर समझते हैं। नतीजन “जिसकी लाठी उसकी भैंस” का सिद्धांत चल रहा है। अगर यह कहा जाये कि हम भले ही आज पढ़-लिख गये लेकिन मानसिक रूप से आज भी आजाद नहीं हुए हैं तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
Nice article