
(राज शेखर भट्ट)
देहरादून। उत्तराखण्ड का सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग इन दिनों गहरे विवादों में है। पत्रकारों और मीडिया संस्थानों का आरोप है कि विभाग विज्ञापन वितरण में भेदभाव कर रहा है। जिन अखबारों ने दशकों तक ईमानदारी से पत्रकारिता की है, उन्हें विज्ञापनों से वंचित रखा जा रहा है, जबकि कुछ चुनिंदा “खास” समाचार पत्रों और पत्रिकाओं पर विभाग ने करोड़ों रुपये लुटा दिए हैं। पिछले एक सप्ताह से लगातार विभिन्न आरटीआई और दस्तावेजों के आधार पर खुलासे हो रहे हैं। कभी 1 करोड़, कभी 40 लाख और अब 65 लाख रुपये तक के विज्ञापन वितरण के मामले सामने आ चुके हैं। लेकिन विडंबना यह है कि अधिकांश पत्रकार इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ खुलकर सामने नहीं आ रहे, बल्कि फ़ोन पर “सुझावों” तक सीमित हैं।
अंधेर नगरी चौपट राजा
कई वरिष्ठ पत्रकारों ने व्यंग्य करते हुए कहा कि सूचना विभाग के हालात बिल्कुल “अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा” जैसे हो चुके हैं। नियम रोज बनते हैं और रोज टूटते हैं। सूत्रों के मुताबिक, फरवरी 2023 से दिसंबर 2024 तक “न्यूज़ हाईट” नामक एक साप्ताहिक समाचार पत्र को लगभग 21 लाख रुपये के विज्ञापन दिये गये। सवाल यह उठता है कि आखिर इस अखबार ने ऐसा कौन-सा “अतुलनीय कार्य” कर दिया कि महज 1 साल 10 महीने में इतना बड़ा लाभ मिल गया?
इसी तरह “दून हलचल” नामक एक अन्य साप्ताहिक को मात्र तीन माह के भीतर लगभग 10 लाख रुपये के विज्ञापन मिल गये। वहीं, अक्टूबर 2024 से जून 2025 के बीच “रॉयल हिन्दुस्तान” को 10 लाख रुपये की राशि दे दी गयी। “हिमांजली एक्सप्रेस” को भी जुलाई 2024 से मई 2025 तक 9.50 लाख रुपये मिल चुके हैं। कुल मिलाकर सिर्फ चार समाचार पत्रों को विभाग द्वारा लगभग 51 लाख रुपये की राशि दे दी गई है। आलोचक कह रहे हैं कि यह “विवेक” नहीं बल्कि “पक्षपात” है, जिसे महानिदेशक महोदय ने नई परिभाषा दे दी है।
जय हो विवेक देवता की
पत्रकारों ने तंज कसा है कि सूचना विभाग का विवेक कुछ चुनिंदा नामों तक सिमटा हुआ है। पुराने और क्षेत्रीय पत्रकार जहां सूखी रोटी पर गुजारा कर रहे हैं, वहीं नए-नए पोर्टलों को विभाग सरकारी खजाने से शहद-घी रोटी परोस रहा है। सूत्रों के अनुसार “पर्वत जन” मासिक पत्रिका को फरवरी 2024 से मई 2025 तक 30 लाख रुपये के विज्ञापन दिये गये। “उत्तराखण्ड शंखनाद” को अक्टूबर 2022 से अक्टूबर 2024 तक 19 लाख रुपये की राशि भेंट की गई। वहीं, “हस्तक्षेप” नामक पाक्षिक पत्रिका, जो सूचीबद्ध भी नहीं है, उसे दिसम्बर 2022 से मई 2025 के बीच 15 लाख रुपये के विज्ञापन मिले।
सबसे बड़ा खुलासा “सण्डे पोस्ट” नामक साप्ताहिक अखबार का है, जिसे सितम्बर 2023 से जून 2025 के बीच लगभग 1 करोड़ रुपये के विज्ञापन दिये गये। कभी 15 लाख, कभी 20 लाख और कभी 10 लाख की किस्तों में विज्ञापन का यह खजाना खुलता गया। सवाल यह है कि जब अन्य अखबारों को बजट की कमी का हवाला दिया गया, तो इस एक अखबार पर इतनी मेहरबानी क्यों? इसी कड़ी में “खबर लाये हैं” (देहरादून और टिहरी संस्करण), “पर्वत संकल्प” और “हिमालय गौरव उत्तराखण्ड” जैसे अखबारों को भी विभाग ने करोड़ों का खजाना खोला। अकेले इन पर 40 लाख रुपये से अधिक की राशि विज्ञापनों में दी गई।
पत्रकारों की नाराज़गी और विरोध
स्थानीय पत्रकारों का कहना है कि यदि विभाग नियमों के अनुसार काम करता, तो इतनी नाराज़गी पैदा नहीं होती। छोटे और मध्यम स्तर के समाचार पत्रों को व्यवस्थित रूप से विज्ञापन मिलते, न कि चुनिंदा पोर्टलों और पत्रिकाओं को करोड़ों। पत्रकार संगठनों ने मांग की है कि सूचना विभाग विज्ञापन वितरण की पूरी सूची सार्वजनिक करे। किसे, कब और कितना विज्ञापन दिया गया, इसकी जानकारी पोर्टल पर डाली जाए। तभी इस विभाग की विश्वसनीयता बचेगी और पत्रकारों का भरोसा लौटेगा।
पत्रकार समाज का सजग प्रहरी हैं । अतः सभी पत्रकार एकजुट होकर सूचना एवं जनसंपर्क विभाग और उसके मंत्री से मिलकर न्याय संगत हल निकाले । सरकार किसी भी पत्रकार के साथ सौतेला व्यवहार न करें । अगर पत्रकार ही आन्दोलन करने लग जायेगे तो निष्पक्ष पत्रकारिता की उम्मीद नहीं की जा सकती । अतः छोटे व मंझौले समाचार पत्रों को रोटेशन प्रणाली से विज्ञापन मिलने चाहिए ताकि वे भी अपना जीवन यापन आराम से कर सकें ।