
सुनील कुमार माथुर
स्वतंत्र लेखक व पत्रकार, जोधपुर, राजस्थान
कहने को तो हम सभ्य समाज के सभ्य नागरिक कहलाते हैं लेकिन अपनी स्वयं की प्रगति व उन्नति के अलावा हमें किसी और की उन्नति व प्रगति नहीं सुहाती हैं।यह कैसी विडम्बना है कि जब कोई व्यक्ति मुस्कुराता है तो सामने वाला उसे देख कर ईर्ष्या करने लगता है और मन ही मन सोचने लगता है कि यह किस बात को लेकर इतना प्रसन्नचित नजर आ रहा है।जबकि हकीकत यह है कि दूसरों की खुशी में ही हमारी खुशी है।कभी भी किसी की प्रगति व उन्नति देखकर ईर्ष्या न करें अपितु उसका हौसला अफजाई करें।जब लोग आप से खफा होने लग जाएं तो समझ लेना कि आप सही राह पर हैं।जलने वाले जलते रहेंगे और प्रगति करने वाले प्रगति करते रहेंगे।याद रखिए ऊंचा होने का गुमान और छोटा होने का मलाल मिथ्या है।खेल खत्म होने के बाद शतरंज के सभी मोहरे एक ही डिब्बे में रखे जाते हैं।
इस कलियुग में दया, दान और भलाई भी अब बड़े सोच-समझ कर करनी पड़ती हैं।अगर बिना सोचे-समझे भलाई कर दी तो न जाने किस लफड़े में फंस जाएं।कब अपहरण, गुमराह करने, भगाने के आरोप लग जाएं और बिना वजह मुसीबत में घिर जाएं।चूंकि समाज में आपराधिक लोगों का कोई भरोसा नहीं है किस मुसीबत में डाल दें।इसका मतलब यह नहीं है कि हम दया, दान व भलाई करने जैसे नेक कार्य बंद कर दें।जरूर कीजिए, लेकिन सोच-समझ कर ही कीजिए।
जिंदगी में जो कुछ भी होता है वो किसी वजह से ही होता है, या तो वो आपको कुछ बनाकर जाता है या फिर सिखाकर।जब आप योजनाबद्ध तरीके से काम करते हैं तो सफलता अवश्य ही मिलती है।अगर सफलता के किनारे आकर हम असफल महसूस करते हैं तो घबराना नहीं चाहिए, चूंकि आपकी प्रगति की यह रुकावट ही आपको सफलता का मार्ग दिखा रही है।इसलिए जीवन में कभी भी हताश व निराश न हों।कहा भी जाता है कि जहां किसी की भी नहीं चलती है, वहां उस परमात्मा की ही चलती है और जहां उसकी चलती है, फिर वहां किसी दूसरे की नहीं चलती है।
हम किसी को ज्ञान से विद्वान तो बना सकते हैं लेकिन बुद्धिमान बनाने के लिए हमें अपने विवेक का ही उपयोग करना होता है।इसलिए हर क्षण कुछ नया सीखने का प्रयास करते रहिए।चूंकि खाली दिमाग शैतान का घर होता है।आज हम कहने को तो तकनीकी युग की बातें करते हैं लेकिन जा रहे हैं हम पीछे की ओर।क्योंकि शिक्षा हमें अंगूठे के निशान से हस्ताक्षर तक ले गई और नवीनतम टेक्नोलॉजी हमें हस्ताक्षर से फिर अंगूठे के निशान की ओर ले आई।मोबाइल की यह डिब्बियां क्या आईं, दिन भर में न जाने कितने अंगूठे देखने को मिलते हैं।
इस अंगूठे ने जनता-जनार्दन द्वारा व्यक्त की जाने वाली प्रतिक्रिया को उनसे छीन लिया, जिसके कारण लोगों के मन के सही भाव व उद्गार जन-जन तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।अंगूठे को देखकर ऐसा लगता है कि सामने वाला हमें अंगूठा दिखाकर हमारी खिल्ली उड़ा रहा है।हम सभ्य देश के सभ्य नागरिक हैं, इसलिए अपनी अभिव्यक्ति शब्दों में ही व्यक्त करें, न कि अंगूठे के माध्यम से।
Nice article
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