
डॉ. शशि वल्लभ शर्मा
सहायक प्राध्यापक हिंदी, अम्बाह पीजी कॉलेज अम्बाह जिला मुरैना
भारतीय नारी सदियों से त्याग, सहनशीलता और पतिव्रता की प्रतीक रही है। सावित्री, सीता, अनुसूया जैसी नारियों ने नारी गरिमा की ऊँचाई स्थापित की। उन्होंने अपने पति को परमेश्वर माना और जीवन को धर्म के अनुरूप जिया। लेकिन आज कुछ मामलों में वही नारी पति की हत्या तक पहुँच रही है — यह एक गंभीर मानसिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक संकट का संकेत है। आज की पाश्चात्य प्रभावित परवरिश में लड़कियों को खुलकर जीने की छूट तो दी जा रही है, पर संस्कार, संयम और उत्तरदायित्व का पाठ नहीं पढ़ाया जा रहा।
परिणामस्वरूप, विवाह अब एक पवित्र बंधन की जगह समझौता बनता जा रहा है। भारतीय धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं से दूरी, योग व आत्मचिंतन का अभाव, युवाओं को अधीर, प्रतिक्रियाशील और भावनात्मक रूप से कमजोर बना रहा है। नारी अधिकारों के नाम पर मिली कानूनी छूट जब असंतुलित होती है, तो वह परिवार की एकता को तोड़ती है। पति-पत्नी के संबंध अब सहयोग नहीं, अधिकारों की प्रतिस्पर्धा में बदल रहे हैं। रिश्तों में संवाद, सम्मान और सहनशीलता की जगह टकराव ले रहा है, जिससे कुछ महिलाएं हिंसक कदम उठाने तक पहुँच रही हैं।
आज ज़रूरत है कि माता-पिता अपनी बेटियों को केवल स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की मर्यादा भी सिखाएँ। किशोरावस्था से ही उन्हें बताया जाए कि विवाह केवल सामाजिक समझौता नहीं, बल्कि एक पवित्र जिम्मेदारी है जिसमें श्रद्धा, सेवा और सहिष्णुता आवश्यक है। रामचरितमानस अयोध्याकाण्ड में माता सीता का कथन है “प्राणनाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान। तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥ हे प्राणनाथ तुम्हारे बिना देवपुर भी नरक सामान है। आज के समाज में फिर से प्रासंगिक है। सीता माता और सती अनुसूया जैसे उदाहरणों से नारी को उसकी आंतरिक शक्ति और गरिमा का स्मरण कराना ज़रूरी है।
जब विदेशों में दाम्पत्य जीवन संकट में होता है, तो वहां के बुजुर्ग भारत आने की सलाह देते थे — यह मानते हुए कि यहाँ रिश्तों की आत्मा अब भी जीवित है। लेकिन जब भारत में पति की हत्या जैसी घटनाएँ सामने आती हैं और वह भी लगातार, तो हमारी वही छवि धूमिल हो जाती है। प्रश्न उठता है कि जब भारत ही रिश्तों के अपराध का केन्द्र बन जाए, तो दुनिया हमसे क्या सीखेगी? भारत की असली ताकत उसकी संस्कृति, आत्मसंयम और नैतिक मूल्यों में है। यदि हम आधुनिकता के नाम पर इन जड़ों को खो देंगे, तो न केवल हमारे परिवार टूटेंगे, बल्कि हमारी वैश्विक प्रतिष्ठा भी समाप्त हो जाएगी। हमें फिर से उन आदर्शों को अपनाना होगा जो भारतीय समाज की आत्मा हैं — जहाँ नारी धैर्य, दया और धर्म की मूर्ति थी। जब तक परिवार, विशेषकर बेटियों की परवरिश इन मूल्यों के साथ नहीं होगी, तब तक समाज में स्थायित्व और शांति की कल्पना अधूरी रहेगी।
नोट – उक्त विचार लेखक के स्वयं के हैं, किसी पर विचार थोपना मंशा नहीं हैं.