बढ़ती बसावट, बढ़ता तापमान
बढ़ती बसावट, बढ़ता तापमान… धरती का तापमान बढ़ने का कारण जानते हुए भी हम जागरूक नहीं हो रहे हैं। बची-खुची हरियाली को भी नष्ट कर हम अपने पैरों पर अपने आप कुल्हाड़ी मार रहे हैं। शहरों में सीमेंट-कंक्रीट के जंगल उगाने वाले पर्यावरण संरक्षण का नारा लगा कर खुद की पीठ थपथपा रहे हैं। #ओम प्रकाश उनियाल
उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में झुलसा देने वाली गर्मी से इंसान से लेकर पशु-पक्षी बेहाल हो रहे हैं। लू के थपेड़ों के कारण लोगों का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो रहा है। भू-जल का स्तर गिर रहा है। नदियों का जल-स्तर घट रहा है। जिससे पीने के पानी व खेती के लिए सिंचाई की समस्या भी खड़ी हो रही है। फिलहाल गर्मी से किसी प्रकार से राहत मिलने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। गर्मी तो हर साल आती रही है और आती रहेगी।
धरती का तापमान बढ़ने का कारण जानते हुए भी हम जागरूक नहीं हो रहे हैं। बची-खुची हरियाली को भी नष्ट कर हम अपने पैरों पर अपने आप कुल्हाड़ी मार रहे हैं। शहरों में सीमेंट-कंक्रीट के जंगल उगाने वाले पर्यावरण संरक्षण का नारा लगा कर खुद की पीठ थपथपा रहे हैं। जिन राज्यों में इस समय धरती की तपिश सबसे ज्यादा बढ़ी हुई है लगता है उन राज्यों की सरकारें शायद पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन कागजों तक ही सीमित रखती आयी हैं।
यदि सरकारें भू-माफियों पर शिकंजा कसे होती, यदि योजनाबद्ध तरीके से बसावट की होती तो कुकुरमुत्तों की तरह सीमेंट-कंक्रीट के जंगल न उगते। दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, उत्तराखंड के मैदानी इलाकों में घुसते ही अब दम घुटने लगता है। ऐसा नहीं कि देश के अन्य राज्यों के शहरों में सीमेंट-कंक्रीट के जंगल नहीं उगे हों। सब जगह यही हाल है। लेकिन जिन राज्यों में गर्मी के मौसम में हाय-तौबा मच जाती हो उन राज्यों को अपने शहरों की तरफ विशेष ध्यान देने की जरूरत थी।
हम पहाड़ा तो रटते रहते हैं जलवायु-परिवर्तन का मगर उसका निदान करने में पीछे हट जाते हैं। जलवायु-परिवर्तन पूरे विश्व की समस्या है। मिशाल के तौर पर उत्तराखंड राज्य की बात करें तो यहां के जितने भी मैदानी इलाके हैं उनमें अब तिल भर रखने की जगह नहीं है। नालों-खालों, खादर तक को लोगों ने नहीं छोड़ा।
हर तरफ हरियाली मिटा कर वहां भवन खड़े कर दिए। राज्य बनने के बाद से ही यहां के मैदानी इलाकों में बसावट का ग्राफ बढ़ने लगा था। पहाड़ के लोग भू-कानून का रोना रोेते रहते हैं और हर सरकार में बैठे कारिंदे मलाई चाटते रहे। अभी भी वक्त है चेतने का। जरा आने वाली पीढ़ी के भविष्य के बारे में भी सोचिए।
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