
हमारी भावनाओं पर किसका नियंत्रण उचित है ‘हमारा’ या ‘दूसरों’ का…? हमें चाहिए कि हम कुछ इस प्रकार अपनी हर भावना को नियंत्रित करें कि हमारे मस्तिष्क तक जब भी हमारे भाव पहुंचे तब हमें सही और गलत समझने की जो हमारे अंदर क्षमता होती हैं उसे विकसित कर ले। #आशी प्रतिभा (स्वतंत्र लेखिका) मध्य प्रदेश, ग्वालियर
[/box]अक्सर हम हमारी भावनाओं को इतना महत्व नहीं देते हम सभी की सुनते हैं समझते हैं, “” फिर कुछ तो लोग कहेंगे; यह सोचकर ही निर्णय लेते हैं परंतु यह कहां तक सही हैं। हम अधिकांश दूसरो की सुनकर ही अपना दिमाग चलाना शुरू कर देते हैं ऐसे में अपनी भावनाओं को समझने की जगह दूसरों की भावनाओं को समझ कर ही कार्य प्रारंभ कर देते हैं। परंतु हमें स्वयं की भावनाओं का मान रखते हुए भी चिंतन मनन करना चाहिए।
हमारे आंतरिक मन में जो भी विचार उत्पन्न होते हैं वह हमारा मस्तिष्क समझता है और इसके साथ ही हमें एक आधार प्राप्त होता है कि हम क्या सोच रहे हैं; हमारे अंदर क्या भाव उत्पन्न हो रहे हैं यह जानने की प्रवृत्ति हमारे अंदर होनी चाहिए। अधिकांश हम हमारी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं कर पाते तब उन पर अंकुश लगाते हैं या उन्हें अनुचित तरीके से प्रस्तुत करते हैं।
जबकि हमें चाहिए कि हम कुछ इस प्रकार अपनी हर भावना को नियंत्रित करें कि हमारे मस्तिष्क तक जब भी हमारे भाव पहुंचे तब हमें सही और गलत समझने की जो हमारे अंदर क्षमता होती हैं उसे विकसित कर ले। भावनाओं पर यही नियंत्रण ही जीवन में हमारे निर्णय लेने की क्षमता को भी बढ़ता है।
हम अपनी भावनाओं को जैसे ही समझना शुरू करते हैं हमें धीरे-धीरे उन पर नियंत्रण करना भी आ जाता है समय अनुसार। यह बिल्कुल आपके ऊपर ही होना चाहिए कि आप किसकी बात को सुने और किसकी समझे कोई और आपके अंदर उठ रही भावना को नहीं दबा सकता यहां आप तर्कशील हो जाते हैं।
तो कहने का सांकेतिक अर्थ स्पष्ट यह है की हमारे जीवन में हमारी भावनाओं पर हमारा ही नियंत्रण होना चाहिए ना कि दूसरों का।
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