सशक्तिकरण किसका, स्त्री का या पुरुष का…?

वीरेंद्र बहादुर सिंह

द्रोपदी मुर्मु स्त्री हैं इसलिए उन्हें राष्ट्रपति नहीं, राष्ट्रपत्नी कहा जाना चाहिए। हम अभी भी स्त्री और पुरुष के बीच की सीमा पर घर-घर का खेल खेल रहे हैं। स्त्री सशक्तिकरण की ध्वजा ले कर इधर से उधर भाग रहीं स्त्रियां अभी भी यह मान रही हैं कि पूरा पुरुष वर्ग उन्हें कुचलने-दबाने और उनके अस्तित्व को गुलाम बनाने को तैयार बैठा है। वह पुरुष नहीं मर्द है, इस बात का अभिमान सीने में लिए सियार की तरह घूम रही पुरुषों की टोली अभी भी यह मान रही है कि स्त्रियों की बुद्धि पैर के घुटनों से आगे नहीं बढ़ी है। ऐसी स्त्रियों और ऐसे पुरुषों के बीच स्त्रीत्व और पुरुषत्व की लड़ाई चलती ही रहती है और हम सशक्तिकरण के झंझावात में गहरे से गहरे फंसते जा रहे हैं।

हम भले यह मानते हैं कि हमारा देश अलग-अलग धर्मों में विभाजित है, जबकि वास्तविकता तो यह है कि हमारा देश अभी भी स्त्री-पुरुष दो जातियों में फंसा है। मेरा तो साफ मानना है कि स्त्रीत्व और पुरुषत्व की यह लड़ाई अब बंद होनी चाहिए। स्त्री स्त्री है और पुरुष पुरुष है। स्त्री चाहे भी तो पुरुष की जगह नहीं ले सकती और पुरुष चाहे तो भी स्त्री के अस्तित्व को मिटा नहीं सकता। मेरे दादा के दादा ने आप की दादी की नानी को स्त्री होने के नाते नुकसान पहुंचाया था, इसलिए आज मैं बहुत खुश हूं। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वर्षों पहले की स्त्रियां पीड़ित थीं, इसलिए हमें इस समय स्त्रियों का सपोर्ट करना चाहिए।

हां, मैं ऐसी स्त्री के सपोर्ट में निश्चित खड़ा रहूंगा, जो सही अर्थ में पीड़ित है, दुखी है। वर्षों पहले स्त्री पीड़ित थी, इसलिए वर्षों बाद आज स्त्री सशक्तिकरण का झंडा हाथ में ले कर मुझे नहीं घूमना। हम एलेक्सा का उपयोग करते हैं। हम सीरी को आदेश देते हैं। एक वर्ग ऐसा भी है, जो यह मानता है कि एलेक्सा या सीरी ऐसे स्त्रीलिंग नाम इसलिए रखे गए, क्योंकि कही गई बातें तो स्त्री ही झेल सकती है। पूछे गए सवालों के जवाब स्त्री ही दे सकती है। स्त्री जवाब दे यानी महान हो गई? स्त्री कही गई बातें झेलती रहे तो महान हो गई? प्रत्येक परिवारों की व्यक्तिगत रूप से झरती ली जाए तो पता चलेगा कि ज्यादातर परिवारों में सवाल पूछने की भूमिका में स्त्री ही होती है।

कहां गए थे, कब आओगे, क्या खाओगे, किससे बातें कर रहे थे, वह तुम्हारी कौन है, उनके यहां खाने क्यों जाना है, आदि आदि सवाल स्त्री ही पूछ सकती है। हिम्मत से पूछ सकती है और सीना तान कर पूछ सकती है। पूछे गए सवालों के जवाब न देना या जवाब न देने की भूमिका से हट जाना सशक्तिकरण नहीं है। पर पूछे गए सवालों के सही जवाब देने की हिम्मत रखना सशक्तिकरण है। कही गई बातें न झेलना हो तो न झेलने का कारण बेधड़क कह देना सशक्तिकरण है। एलेक्सा या सीरी स्त्री की सोच की आगेवानी नहीं करतीं। यह ये सूचित करती हैं कि अभी भी पुरुषों के आकर्षण की अपेक्षा स्त्री का आकर्षण अधिक है। स्त्री की आवाज पुरुषों की आवाज की अपेक्षा सुनने में मीठी लगती है।

इस समय एक कांसेप्ट चल रहा है हाउस वाइफ स्त्रियों को सेलरी देने का। जिस स्त्री को उसका पति बिलकुल पेसे नहीं देता, जिस स्त्री को अपनी इच्छानुसार जीने के लिए तड़पना पड़ता है, ऐसी स्त्रियों के लिए यह कांसेप्ट उचित है। पर किटी पार्टियां करने वाली, महीने में 2-3 बार ब्यूटीपार्लर में जा कर अपनी साफ-सफाई कराने वाली हाउस वाइफ स्त्रियां अगर सेलरी की डिमांड करें तो वे मूर्ख लगती हैं। ऐसी स्त्रियां यह भूल जाती हैं कि परिवार की जिम्मेदारी स्त्री और पुरुष दोनों के कंधों पर होती है। अगर पुरुष नौकरी करता है, कमाता है तो स्त्री घर संभालती है। स्त्री को घर संभालना अगर नौकरी लग रही है और उसे सेलरी चाहिए तो नौकरी करने वाले पुरुष को क्या डिमांड करना चाहिए?

सशक्त होना और स्वच्छंद होना… ये दोनों अलग बातें हैं। स्त्री की लिबर्टी के बारे में मेरे ख्याल बिलकुल अलग हैं। मेरा साफ मानना है कि स्त्री चाहे जितनी भी सशक्त हो जाए, जिस इलाके से पुरुष पांच लाख का बैग ले कर जाने से कतराता हो उस इलाके से आधी रात को अकेली जाने के दुस्साहस को मैं सशक्तिकरण नहीं मानता। यही बात पुरुषों को भी समझने की जरूरत है। जो स्र्त्री सर्वोच्च स्थान पर बैठी है, उसने अपने स्त्री होने का अपना विक्टिम कार्ड खेला है, यह जरूरी नहीं है। आपकी स्त्री जब बाॅस हो तो वह आत्मनिर्भर महिला अभियान के तहत वहां पहुंची ही, यह जरूरी नहीं है। उसकी बुद्धि आप से अधिक है। उसके अनुभव आप से अधिक हैं, इस बात को स्वीकार करना चाहिए।

द्रोपदी मुर्मु को राष्ट्रपति नहीं राष्ट्रपत्नी के रूप में संबोधन करना चाहिए, यह कहने वाले तमाम लोगों से मेरा यही कहना है कि पति एक प्रकार का संबोधन है। पति वह है जो मुश्किल में निर्णय ले सके, पति वह है जो परिवार को एकजुट रखने की कोशिश करे, पति वह है जो अर्थ उपार्जन का कार्य करे, पति वह है जो नियम बनाए और पति वह है जो उन नियमों का पलन हो, इस बात का ध्यान रखे। हमने पति शब्द को पुरुषवाचक बना दिया है। जो स्त्री ये सभी भूमिकाएं निभा सकती है, उसे भी पति के रूप में संबोधित किया जा सकता है। स्त्री और पुरुष को अलग करने वाली रेखा तब खत्म होगी, जब स्त्री कहे जाने वाले सशक्तिकरण का झंडा हाथ से नीचे फेंक देंगे और पुरुष स्त्री के सीने के बजाय दिमाग की ओर नजर करेगा।


¤  प्रकाशन परिचय  ¤

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वीरेंद्र बहादुर सिंह

लेखक एवं कवि

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जेड-436-ए, सेक्टर-12, नोएडा-201301 (उत्तर प्रदेश) | मो : 8368681336

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देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड)

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