हम आदर्श संस्कारों को भूल गये

सुनील कुमार माथुर

आज आधुनिकता की दौड में हम अपने आदर्श संस्कारों को ही भूल गयें । आज संयुक्त परिवार खंडित हो रहे हैं जिसके कारण बडे बुजुर्गों के अभाव में बच्चों को आदर्श संस्कार देने वाला परिवार में कोई नहीं हैं । एकाकी परिवार में माता पिता दोनों नौकरी पर चले जाते हैं और बच्चें अकेले रहते है जिसके कारण उन्हे सही मार्गदर्शन देने वाला और व्यवहारिक ज्ञान देने वाला परिवार में कोई नहीं हैं । नतीजन बच्चे जिद्दी हो रहे है और मनमानी कर रहे हैं । पाश्चात्य संस्कृति ने रही सही संस्कृति का मटियामेट कर दिया है । पाश्चत्य संस्कृति के चलते महिलाओं के तन से कपडे कम होने लगे । फैशन की आड में यह सब चल रहा है जबकि भारतीय सभ्यता और संस्कृति हमें ऐसा नहीं सिखाती हैं।

आज हर कोई जाति , धर्म , भाषा , क्षेत्र को लेकर झगड रहे है । प्रेम , स्नेह व भाईचारा की जगह घृणा , नफरत , राग – ध्देष सर्वत्र दिखाई दे रहा हैं । हमारे ही देश के नेता फूट डालो और राजनीति करो की नीति का खेल खेल रहे हैं । जो आदर्श संस्कार हमारी पहचान थे , उन्हें आज हम भूल गये हैं । साधु संतों का हमने साथ छोड दिया है । यही वजह हैं कि आज देश में शांति के स्थान पर अशांति फैल रही हैं चूंकि हम अपने ही संस्कारों को आज भूल गयें हैं।

एक बार कथा के दौरान कहानी सुनी कि संतों की गद्दी बडी कीमती होती है चूंकि उन पर संतों के चरणों की धूल होती है जिसके कारण उसकी कीमत अमूल्य होती है । एक सज्जन जो अज्ञानी थे । उन्होंने जब यह सुना तो उसने गद्दी यह सोचकर धो डाली कि संतों की धूल वाली गद्दी अनमोल है तो साफ होने से तो यह और भी कीमती हो जायेगी । अतः संतों की गद्दी को खरीद कर उसने धो डाला । अब तो कोई उसे उसकी फूटी कोडी भी नही देता है । जब उस व्यक्ति को सत्य का आभास हुआ तब तक काफी देर हो चुकी थी । असली कीमत तो संतों के चरणों की धूल की थी न कि उस गद्दी की।

कहने का तात्पर्य यह हैं कि अधूरा ज्ञान सदैव घातक ही होता हैं । इस कहानी से यह अंदाज लगता हैं कि संतों के चरणों की धूल का इतना महत्व है तो सच्चे संतों का संग करना कितना लाभदायक होता होगा । विपति को मिटाने के लिए धन की जरुरत पडती हैं लेकिन वर्तमान में धन से विपत्तियां आ रही हैं । आज धन से नाना प्रकार की विपतियां पैदा हो गई हैं अथार्त जैसा खाओंगे अन्न वैसा ही होगा मन।

अतः जीवन में शाकाहारी रहे और अच्छा एवं स्वादिष्ट भोजन ही ग्रहण करे । जैसे स्वादिष्ट भोजन ही हमारी सही मायने में भूख मिटाता है ठीक उसी प्रकार ईश्वर की भक्ति ही हमें ईश्वर से मिलाती है । इसलिए ईश्वर की भक्ति में किसी भी प्रकार का दिखावे का भाव नही होना चाहिए।


¤  प्रकाशन परिचय  ¤

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सुनील कुमार माथुर

स्वतंत्र लेखक व पत्रकार

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33, वर्धमान नगर, शोभावतो की ढाणी, खेमे का कुआ, पालरोड, जोधपुर (राजस्थान)

Publisher »
देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड)

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