जिंदगी की रेल में अनजान मुसाफिर की तरह हैं ‘हम सब’

बालकृष्ण शर्मा

रेलगाड़ी अपनी तेज रफ्तार से स्टेशन दर स्टेसन पार करती हुई चली जा रही थी। दूसरी श्रेणी के सामान्य डिब्बे में यात्री आपस में चिपके हुए दबे दबे बैठे थे। चार यात्रियों के बैठने की बेंच पर सात लोग सिकुड़ मिकुड कर बैठे बतिया रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे सब एक ही परिवार के सदस्य हों। ऊपर सामान रखने की जगह भी बहुत सारे यात्री बैठे थे। सारी रात यात्रियों ने ऊंघते ऊंघते या झपकी लेते हुए काट दी थी। कोई भ्रष्टाचार की बात कर रहा था कोई राजनीति की। किसी को महंगाई मार गई थी तो किसी को बेरोजगारी।

लंबे सफर में समय काटने का यही जरिया था। यात्रियों का आपस में परिचय भी हो रहा था । अच्छा तो आपकी नागपुर में परचून की दुकान है, मेरा तो भाई फर्नीचर का काम है हैदराबाद में । कोई कह रहा था मैं तो जी स्कूल में टीचर हूं तो किसी ने बताया मैं तो टेक्सी चलता हूं। लोग अपनी आप बीती सुनाते जा रहे थे और ट्रेन अपनी रफ्तार से सरपट भागी जा रही थी। खिड़की के पास वाली सीट पर एक साधू महात्मा हाथ में माला लिए ध्यान में तल्लीन बैठे थे। बीच बीच में वे आंख खोलकर अगल बगल बैठे यात्रियों पर भी नजर डाल लेते और मंद मुस्कुराहट के साथ अपनी उपस्थिति जता देते। गाड़ी की रफ्तार कुछ कम होती जा रही थी।

लग रहा था जैसे कोई स्टेशन आने वाला है। एक यात्री अपनी जगह से उठा और सीट के नीचे रखी अपनी अटैची संभालता हुआ बोला भाई मेरा तो स्टेशन आने वाला है अब उतरने की तैयारी करता हूं। नजदीक ही बैठा दूसरा यात्री भी अंगड़ाई लेते हुए उठ खड़ा हुआ और बोला भाई लोगो बस अगला स्टेशन मेरा भी आने वाला है ,में भी तैयारी कर लूं। सामने की सीट पर बैठे हुए बुजुर्ग भी सचेत हो गए और बोले हां भाई लोगो एक एक कर हम सब का स्टेशन आयेगा और फिर हम सब जैसे अचानक मिले थे वैसे ही बिछड़ जाएंगे। चलो भाई राम राम आप तो उतर लो आपका स्टेशन आ गया।अकेला यात्री सब को राम राम बोलता हुआ उतर गया।

कुछ दूर जाते हुए सहयात्री उसे देखते रहे और फिर वह सबकी आंखों से ओझल हो गया। रेलगाड़ी फिर चलने लगी कुछ ही पलों में उसने अपनी तेज रफ्तार पकड़ ली। फिर और एक स्टेशन आया एक दो यात्री उतरे। ट्रेन फिर चल पड़ी उसका तो काम चलते जाना ही था। यात्री बाते करने लगे, अच्छा आदमी था, बहुत अच्छी बातें करता था।कोई बोला अब कहां मिलना होगा, भाई लोगो बस दो दिन का सफर है ,बस अपना अपना सामान सहेजते रहो और उतरने की तैयारी करते रहो। साधु महात्मा जी ने आंखें खोली और एक यात्री से पूछा तुम्हारा स्टेशन कब आएगा, तुम भी तैयारी कर लो। सभी यात्री महात्मजी की और देखने लगे।

महात्माजी बोले, देखा तुम लोगों ने यहां हम सब अपने अपने स्टेशन पर उतरने की तैयारी कर रहे हैं। पर हम सब की जिंदगी में एक बड़ा स्टेशन आने वाला है। जिंदगी भी तो इस रेलगाड़ी की तरह है ।स्टेशन आते गए और हम सब एक एक करते चढ़ते गए । रेलगाड़ी चलती रही ,स्टेशन आते गए ,सहयात्री मिलते गए और हम सब मिल कर इस यात्रा का आनंद लेते गए। जैसे ही साथ के यात्री से जान पहचान हुई घनिस्टता बढ़ी ,किसी का स्टेशन आ गया, नए यात्री आते रहे अपने स्टेशन पर उतरते रहे।

यही जीवन का सत्य है। हम सब भी जिंदगी की रेल में एक अनजान मुसाफिर की तरह हैं। एक स्टेशन पर चढ़े, अनेकों सहयात्रियों से मिले और अंत में हर किसी को अपने अपने स्टेशन पर उतरना ही है। यहाँ तो हम उतरने की तैयारी कर रहे है पर उस बड़े स्टेशन पर उतरने की कोई तैयारी ना कर रहा। किसी को पता ही नहीं की मेरा स्टेशन कौन सा है और कब आएगा। बाबू लोगो उस स्टेशन पर उतरने की भी तैयारी कर रखो पता नहीं कद आ जाय । महात्मा जी की बात में छुपा गूढ़ ज्ञान सबकी समझ में आ गया था और सब बड़े ही आदर भाव से महात्मा जी को देख रहे थे। परंतु महात्मा जी तो तब तक अपने स्टेशन पर उतर चुके थे। बस उनका सामान वहीं पड़ा रह गया था।


¤  प्रकाशन परिचय  ¤

Devbhoomi
From »

बालकृष्ण शर्मा

लेखक

Address »
बी-006, रेल विहार सीएचएस, प्लॉट नं. 01, सेक्टर 04, खारघर, नवी मुम्बई (महाराष्ट्र)

Publisher »
देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Devbhoomi Samachar
Verified by MonsterInsights