उत्तराखंड : यहां हुआ है सबसे ज्यादा पलायन

पार्थसारथि थपलियाल

उत्तराखंड का प्राचीन वैदिक और सांस्कृतिक महत्व रहा है। इस प्रदेश के दो अंचल हैं गढ़वाल और कुमाऊं। गढ़वाल अंचल में पौड़ी, टिहरी, उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग, हरिद्वार और देहरादून जिले हैं। कुमांऊ अंचल में अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत नैनीताल, पिथौरागढ़ और उधम सिंह नगर हैं। कुमाऊं में कुमाउनी बोली जाती है जबकि गढ़वाल अंचल में गढ़वाली। तराई में बोली जाने वाली मुख्य बोली को कौरवी बोलते हैं, कुछ क्षेत्र पंजाबी भाषी भी है।

पर्वतीय अंचल की 13 मुख्य बोलियां हैं। ये हैं- गढ़वाली, कुमाउनी, जौनसारी, जाड़, जौहारी, नागपुरिया, बंगाणी, बोक्सा, थारू, राजी, भोटिया, मार्छया और रांगल्यू। इनमें से अधिकतर बोलियों की उपबोलियाँ भी हैं। देहरादून के चकरौता आँचल में जौनसारी बोली जाती है। इस बोली पर सिरमौरी और गढ़वाली का प्रभाव है। देहरादून और हरिद्वार में मुख्य बोली गढ़वाली है लेकिन यहां अन्य बोलियन भी मौजूद हैं।

इन दिनों उत्तराखंड में उत्तराखंड की गढवाली, कुमाउनी और जौनसारी बोलियों को राज्य की मान्यता प्राप्त करने के प्रयास विभिन्न संगठनों और संस्थाओं की ओर से किये जा रहे हैं। इन प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की लुप्त होनेवाली बोलियन में गढ़वाली और कुमाउनी शामिल हैं। दूसरी ओर गृहमंत्रालय, भारत सरकार के राजभाषा विभाग के पास 40 बोलियों को राजकीय मान्यता प्राप्त करने के प्रस्तव विचाराधीन हैं। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि गढ़वाली-कुमाउनी बोलियाँ राजभाषा हिंदी की 18 घटक बोलियों में से हैं।

उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है, जहां अन्य राज्यों की तुलना में लोक पलायन अत्यधिक हुआ है। उत्तराखंड की 50 लाख के करीब की आबादी शहरों और मैदानों की ओर पलायन कर चुकी है। उत्तराखंड की जनसंख्या अभी लगभग 1 करोड़ 10 लाख के करीब है। लोग अपने बच्चों को अंग्रेज़ी या अन्य रोजगारप्रद भाषाएं सिख रहे हैं। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद सरकारों से जो उम्मीदें थी वे निराशाओं में परिवर्तित हुई हैं। सरकारी तंत्र लूट खसोट में व्यस्त है। यह दुखदायी है हम न देवभूमि बचा पाए, न लोक संस्कृति, न लोक भाषा, न लोक भावना। इसके लिए राजनीति महत्वपूर्ण होते हुए भी सकारात्मक दिखाई नही दी।

राजकीय मान्यता से आशय है भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में किसी बोली का दर्ज होना। अभी तक इस अनुसूची में 22 भारतीय भाषाएं हैं। मान्यता मिलने पर उस भाषा के विकास के मार्ग खुल जाते हैं। सरकारी तंत्र का सहारा मिल जाता है। केंद्रीय साहित्य अकादमी के पुरस्कार पाने का मार्ग प्रशस्त होता है। कुछ रोजगार सृजन भी होता है। आंचलिक साहित्य समृध्द होता है।

दिल्ली में कुछ संस्थाएं रुचि ले रही हैं लेकिन भिन्न भिन्न तरीके से। यह प्रयास साहित्यकारों, सांस्कृतिक अग्रणियों और बुद्धिशील व्यक्तियों के एक मंच पर चिंतन मनन से आगे बढ़ाया जा सकता है। अलग अलग प्रयासों का परिणाम राजनीति को बढ़ावा देना होता है। यह लंबा मार्ग है। राजस्थान की जनसंख्या लगभग 8 करोड़ है। वहां के लोग विगत 40 सालों से राजस्थानी को मान्यता के लिए सघन आंदोलन चला रहे हैं, जबकि राजस्थान में राजनीतिक पक्ष भेदभाव रहित इस आंदोलन के साथ खड़ा है।

इस विषय पर चिंतन मनन करने वाले समाज चिंतकों से निवेदन है कि इस आंदोलन को लक्ष्य की ओर बढ़ाने में उनका चिंतन क्या है। कैसे हम सफल हो सकते हैं? उसे व्यक्त करें। प्रयास रहे कि हम अखाड़ेबाजी से बचें।


संकलनकर्ता : बालकृष्ण शर्मा, बी-006, रेल विहार सीएचएस, प्लॉट नं. 01, सेक्टर 04, खारघर, नवी मुम्बई (महाराष्ट्र)
साभार : https://nationalvani.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Devbhoomi Samachar
Verified by MonsterInsights